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________________ ४२१ विजयोदया टीका अद्धाण रोहगे जणवए य रादो दिवा सिवे ऊमे । दप्पादिसमावण्णे उद्धरदि कम अभिदंतो ।।६१३॥ 'अद्धाण रोहगे जणव यस्यावस्थिते जनपदे यावन्तो मार्गास्तेषां रोधके परचक्रे जाते यदि निस्सतुं न लभते संक्लिष्टा भिक्षा चर्या तत्र अयोग्यस्य सेवा कृता आत्मना तामपि कथयति । 'रादो दिवा' रात्री अयमतिचारो जातो दिवसे इति वा कथनं । मार्या उपदते संघे विद्यया मन्त्रण वा तन्निषेधनायामयमतिचारो जात इति वा । भिक्षे वा महति अवमोदर्यमग्नेन यदात्मना सेवितं, अन्ये वाऽयोग्यभिक्षाग्रहणे इत्थं प्रवर्तिता इति वा कथनं । 'दप्पादिसमावण्णे' दादिभिः समापन्नः । दप्पपमादअणाभोगआपगा आदुरे य तित्तिणिदा। संकिदसहसाकारे य भयपदोसे य मीमंसं ॥ अण्णाणणेहगारव अणप्पवसअलस उपधि सुमिणते । पलिकुचणं ससोधी करेंति वीसंतवे भेवे॥ इति दर्पादिः । अत्र दर्पोऽनेकप्रकारः क्रीडासंघर्षः, व्यायामकुहक, रसायनसेवा, हास्य, गीतशृंगारवचनं, प्लवनमित्यादिको दर्पः । प्रमादः पञ्चविधः-विकथाः, कषाया, इन्द्रियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । अथवा प्रमादो नाम संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्तिः, बाह्यशास्त्रशिक्षणं, काव्यकरणं, समितिष्वनुपयुक्तता । छेदनं भेदनं, पेषणमभिघातो, व्यधनं, बन्धनं, स्फाटनं, प्रक्षालनं, रञ्जनं, वेष्टनं, ग्रथनं, पूरणं, समुदायकरणं, लेपनं, क्षेपणं, आलेखनमित्यादिकं संक्लिष्टहस्तकर्म, स्त्रीपुरुषलक्षणं निमित्तं, ज्योतिर्ज्ञानं, छंदः, अर्थशास्त्रं, वैद्यं, लौकिकवैदिकसमयाश्च बाह्यशास्त्राणि । उपयुक्तोऽपि सम्यगतीचारं न वेत्ति सोऽनाभोगकृतः, व्याक्षिप्तचेतसा गा०-टी०-देशसे बाहर जानेके जितने मार्ग हैं, शत्रुसेनाके द्वारा उन सबके बन्द कर देनेपर साधु निकल नहीं पाता। उस समय परवश होकर साधुको भिक्षाचर्या करनेमें जो संक्लेश हुआ हो, अथवा अपने द्वारा अयोग्य पदार्थका सेवन हुआ है उसे भी गुरुसे कहता है। रातमें यह अतिचार हुआ, दिनमें यह अतिचार हुआ, यह भी कहता है । अथवा संघमें भारी रोगका उपद्रव होनेपर विद्या या मंत्रके द्वारा उसे रोकने में यह अतिचार लगा, यह भी कहता है। महान दुर्भिक्ष पड़नेपर अवमौदर्य तपको भंग करके स्वयंने जो सेवन किया हो, अथवा दूसरे साधुओंको अमुक प्रकारसे अयोग्य भिक्षाके ग्रहण करने में प्रवृत्त किया हो, वह भी कहता है। दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आपात, आर्तता, तित्तिणिदा, शंकित, सहसा, भय, प्रदोष, मीमांसा, अज्ञान, स्नेह, गारव, अनात्मवशता, आलस्य, उपधि, स्वप्नान्त, पलिकुंचन, और स्वयंशुद्धि ये बीस दर्पादि कहे हैं। इनका विवरण इनमेंसे दर्पके अनेक प्रकार हैं-१. खेलकूदमें संघर्ष, व्यायाम, इन्द्रजाल, रसायन सेवन, हास्य, गीत, शृङ्गार, दौड़ना, तैरना आदिको लेकर घमंड करना। २. प्रमादके पाँच भेद हैंविकथा, कषाय, इन्द्रियोंके विषयमें आसक्ति, निद्रा और प्रणय (स्नेह) । अथवा संक्लिष्ट हस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्रोंकी रचना करना, काव्यरचना और समितियोंमें उपयोग न लगाना ये पाँच प्रमाद हैं। छेदना, भेदना, पीसना, अभिघात, बींधना, खोदना, बाँधना, फाड़ना, धोना, रंगना, वेष्ठित करना, गूंथना, पूरना, समुदाय करना, लीपना, फेंकना, चित्रकारी करना ये सब संक्लिष्ट हस्तकर्म हैं। स्त्री पुरुषके लक्षण जिसमें बतलाये हों ऐसा शास्त्र, निमित्तशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, छन्दशास्त्र, अर्थशास्त्र, वैद्यकशास्त्र तथा लौकिक और वैदिकशास्त्र बाह्यशास्त्र हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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