SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 855
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८८ भगवतीआराधना दुबिहपरिणामवादं संसारमहोदधि परमभीमं । अदिगम्म जीवपोदो भमइ चिरं कम्मभण्डभरो ॥१७६६॥ 'दुविधपरिणामवाद' द्विविधाः शुभाशुभपरिणामा वाता यस्मिस्तं । 'परमभीम' अतिभयंकरं । 'अदिगम्म' प्रविश्य । 'जीवपोदो' जीवपोतः । 'भमइ चिरं' चिरकालं भ्रमति । 'कम्मभण्डभरो' कर्मद्रविणभारः । त्रिभिः सम्बन्धः ॥१७६६॥ भवसंसार निरूपयति एगविगतिगचउपंचिंदियाण जाओ हवंति जोणीओ। सव्वाओ ताओ पत्तो अणंतखुत्तो इमो जीवो ॥१७६७।। 'एगविगतिगचउपाँचदियाण' नामकर्म गतिजात्यादिविचित्रभेदं । तत्र जातिकर्म पञ्चविकल्पं एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजातिविकल्पेन तासां जातीनामुदयात् । एकेन्द्रियतादिपर्यायभाजो जीवाः एकेन्द्रियादिशब्देनोच्यन्ते । तेषामेकेन्द्रियादीनां योनय आश्रया बादरसूक्ष्मपर्याप्तकापर्याप्तकाख्या जीवद्रव्याणामिहाश्रयत्वेन विवक्षिताः । 'सचित्तशीतसंवृता सेतरा मिश्राश्चैकशस्तधोनयः' [ त० सू० २।३२ ] इति सूत्रे ये निर्दिष्टाश्चतुरशीतिशतसहस्रविकल्पास्त इह न गृह्यन्ते । यतः सूत्रान्तरे देवत्वनारकत्वमनुष्यत्वतिर्यक्त्वाख्या भवपर्यायपरावृत्तिर्भवसंसार इत्युक्तः । गिरयादिजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लयादु गेवज्जा। मिच्छत्तसंसिदेण दु भवठ्ठिदी भज्जिदा बहुसो ।। इति वचनात् ।। योनयो न भवशब्दवाच्याः । जीवपर्यायो हि भवस्तत्र भवः संसारस्त्रिशद्विधः-पृथिव्यप्तेजोवायुवन गा०--कर्मरूपी भाण्डसे भरा हुआ जीवरूपी जहाज शुभ अशुभ परिणामरूप वायुसे युक्त अतिभयंकर संसार महासागरमें प्रवेश करके चिरकाल तक भ्रमण करता है ।।१७६६।। अब भवसंसारका कथन करते हैं गा०-टी०-नामकर्मके गतिनामकर्म जातिनामकर्म आदि अनेक भेद हैं। उनमेंसे जातिनामकर्मके पाँच भेद हैं-एकेन्द्रिय जातिनाम, दोइन्द्रिय जातिनाम, त्रीन्द्रिय जातिनाम, चतुरिन्द्रिय जातिनाम और पञ्चेन्द्रिय जातिनाम। उन जातिनाम कर्मो के उदयसे एकेन्द्रिय आदि पर्यायमें जन्म लेनेवाले जीव एकेन्द्रिय आदि शब्दसे कहे जाते हैं। उन एकेन्द्रिय आदिकी बादर सूक्ष्म पर्याप्त और अपर्याप्त योनियोंको यहाँ जीवद्रव्यका आश्रय कहा है । तत्त्वार्थ सूत्रके 'सचित्तशीतसंवृताः' इत्यादि सूत्रमें जो चौरासी लाख योनियां कही हैं, यहां उनका ग्रहण नहीं किया है। क्योंकि उसी तत्त्वार्थसूत्रके 'संसारिणो मुक्ताश्च' सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि टोकामें देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यश्च नामक भवपर्यायके परावर्तनको भवसंसार कहा है। कहा है-'इस जीवने नरकगति आदिकी जघन्य स्थितिसे लेकर उपरिम वेयक पर्यन्त अनेक भवस्थितियोंको मिथ्यात्वके संसर्गसे भोगा है।' अतः भवशब्दसे योनियां नहीं कही जातीं। जीवकी पर्यायको भव कहते हैं। भवसंसार तीस प्रकारका है-पृथिवीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकायमेंसे प्रत्येकके Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy