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________________ विजयोदया टीका ७८९ स्पतिकायाः प्रत्येकं बादरसूक्ष्मपर्याप्तकापर्याप्तविकल्पाविंशतिविधाः । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञासंज्ञिविकल्पाः पञ्चेन्द्रियाश्च पर्याप्तापर्याप्तकविकल्पा दशविधाः। अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवं वदन्ति । नरकगतो सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः परिभ्रम्य तेनैवायुषा तत्र जायते । एवं दशवर्षसहस्राणां यावन्तः समयास्तावत्कृत्वा तत्रैव जातो मृतः । पुनरेकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गतौ अन्तर्मुहूर्तायुःसमुत्पन्नः । पूर्वोक्तेन क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य एवं मनुष्यगतो। देवगतौ भारकवत् । अयं तु विशेषः, एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि यावत्तावद्भवपरिवर्तनाः सर्वास्ता भवन्ति इति । अनन्तवारमयं प्राप्तो जीवः ॥१७६७॥ द्रव्यपरिवर्तनमुच्यते अण्णं गिण्हदि देहं तं पुण मुत्तूण गिण्हदे अण्णं । घडिजंतं व य जीवो भमदि इमो दव्वसंसारे ॥१७६८।। 'अण्णं गेण्हदि देहं' अन्यच्छरीरं गह्णाति । 'तं पुण मुत्तण' तच्छरोरं मुक्त्वा पुनरन्यद् गृह्णाति । 'घटीयंत्रमिव जीवो' घटीयन्त्रवज्जीवः । यथा घटीयन्त्रं अन्यज्जलं गृह्णाति तत त्यक्त्वा पुनरन्यदादत्ते एवमयं शरीराणि गृह्णन् मुंश्च भ्रमति । शरीराणि विचित्राणि द्रव्यशब्देनोच्यन्ते तत्स्वात्मनः परिवर्तनं बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त चार भेद होनेसे बीस भेद होते हैं। तथा दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और संजीपञ्चेन्द्रियके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद होनेसे दसभेद होते हैं। अन्य आचार्य भवपरिवर्तनका स्वरूप इस प्रकार कहते हैं___ नरकगतिमें सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्षकी है। कोई जीव उस आयुको लेकर नरकमें उत्पन्न हुआ। पुनः परिभ्रमण करके उतनी ही आयुको लेकर नरकमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्षो के जितने समय होते हैं उतनी बार दस हजार वर्षकी आयु लेकर नरकमें उत्पन्न हुआ और मरा। पुनः दस हजार वर्षको आयुमें एक-एक समय बढ़ाकर नरकमें उत्पन्न होते हुए वहाँकी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण की। नरककी आयु पूर्ण करनेके पश्चात् तिर्यञ्चगतिमें एक अन्तर्मुहूर्तकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ और मरा। नरकगतिमें कहे क्रमानुसार तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य पूर्ण की। तिर्यञ्चगतिके समान मनुष्यगतिकी आय पूर्ण की और नरकगतिके समान देवगतिकी आयु पूर्ण की। किन्तु इतना विशेष है कि उपरिम ग्रेवेयककी उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर पूर्ण होने पर समस्त भवपरिवर्तन हो जाते हैं। ऐसे भवपरिवर्तन इस जीवने अनन्तवार किये हैं ॥१७६७॥ द्रव्यपरिवर्तनको कहते हैं गा०-टो०-घटीयन्त्रकी तरह जीव अन्य शरीरको छोड़कर अन्य शरीरको ग्रहण करता है। उसे भी छोड़कर अन्य शरीरको ग्रहण करता है। जैसे घटीयन्त्र नया जल ग्रहण करता है उसे निकालकर फिर नया जल ग्रहण करता है। उसी प्रकार यह जीव शरीरोंको ग्रहण करता और छोड़ता हुआ भ्रमण करता है। द्रव्यशब्दसे विचित्र शरीर कहे हैं। आत्माके शरीरोंका १. सर्वार्थसि० २।१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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