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________________ ७९० भगवती आराधना द्रव्यसंसार इति सूत्रकारस्यास्य व्याख्या स्थूलबुद्धीन दृिश्य । एवं तु द्रव्यपरिवर्तनं ग्राह्यं । द्रव्यपरिवर्तनं द्विविधं-नोकर्मपरिवर्तनं कर्मपरिवर्तनं चेति । तत्र नोकर्मपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एकस्मिन्समये गृहीताः स्निग्धरूक्षवर्णगन्धादिभिस्तीव्रममन्दमध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा अगृहीताननन्तवारानतीत्य, मिश्रकांश्च अनन्तवारानतीत्य मध्ये गृहीतागृहीतांश्च अनन्तवारानतीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं । कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते-एकस्मिन्समये एकेन जीवेन अष्टविधकर्मभावेन ये च गृहीताः समयाधिकावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णाः पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनं ॥१७६८॥ रंगगदणडो व इमो बहुविहसंठाणवण्णरूवाणि । गिण्हदि मुच्चदि य ठिदं जीवो संसारमावण्णो ॥१७६९।। 'रंगगदणडो व' रंगप्रविष्टनट इव । 'इमो' अयं 'बहुविहसंठाणवण्णरूवाणि' बहुविधसंस्थानवर्णस्वभावान् । 'गिण्हदि य 'मुच्चदि य अठिदं' गृह्णाति मुञ्चति च अस्थितं । क्रियाविशेषणमेतत । 'जीवो संसारमावण्णो' जीवो द्रव्यसंसारमापन्नः ॥१७६९।। क्षेत्रसंसारं निरूपयति जत्थ ण जादो ण मदो हवेज्ज जीवो अणंतसो चेव । काले तदम्मि इमो ण सो पदेसो जए अत्थि ॥१७७०।। परिवर्तन द्रव्यसंसार है । ग्रन्थकारने स्थूलबुद्धि वालोंको लक्ष करके द्रव्यसंसारका यह स्वरूप कहा है, किन्तु द्रव्यपरिवर्तन इस प्रकार लेना। द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद हैं-नोकर्म परिवर्तन और कर्म परिवर्तन । उनमेंसे नोकर्म परिवर्तन इस प्रकार है-तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य जो पुद्गल एक जीवने एक समयमें ग्रहण किये, उनमें जैसा स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण रहा हो और तीव्र, मन्द या मध्यम भावसे वे ग्रहण किये गये हों, दूसरे आदि समयोंमें उन्हें भोगकर छोड़ दिया। उसके पश्चात् अनन्तवार अगृहीतको ग्रहण करके, अनन्तवार मिश्रको ग्रहण करके, मध्यमें गृहीत और अगृहीतको अनन्तवार गृहण करके वे ही पुद्गल उसी जीवके उसी प्रकारसे जब नोकर्म रूपको प्राप्त होते हैं, उस सबको नोकर्म परिवर्तन कहते है । अब कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं-एक समयमें एक जीवने आठ कर्मरूपसे जो पुद्गल ग्रहण किये और एक समय अधिक एक आवली कालके पश्चात् द्वितीय आदि समयोंमें उन्हें भोगकर छोड़ दिया। नोकर्म परिवर्तनमें कहे क्रमके अनुसार वे ही कर्मपुद्गल उसी जीवके उसी प्रकारसे जब कर्मरूपसे आते हैं उस सबको कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं ।।१७६८।। गा०-जैसे रंगभूमिमें प्रविष्ट हुआ नट अनेक रूपोंको धारण करता हैं उसी प्रकार द्रव्यसंसारमें भ्रमण करता हुआ जीव निरन्तर अनेक आकार, रूप, स्वभाव आदिको ग्रहण करता और छोड़ता है ।।१७६९।। १. दि य ठिदं आ० । २. अवस्थितं -आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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