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________________ ८९० भगवती आराधना सम्यङ्मिथ्यात्वं, सम्यक्त्वं च क्रमेण एवं प्रकृतिसप्तकं विनाश्य क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा क्षपकश्रेण्यधिरोहणा• भिमुखोऽधःप्रवृत्तकरणं अप्रमत्तस्थाने प्रतिपद्य ॥२०८६॥ अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुव्वकरणं सो। होइ तमपुवकरणं कयाइ अप्पत्तपुव्वंति ॥२०८७।। 'अध खवगसेढिमधिगम्म' अथ क्षपकश्रेणीमधिगम्य करोति साधुरपूर्वकरणमसौ। किं तदपूर्वकरणमित्याशङ्कायामुच्यते । 'होवि तमपुवकरणं' भवति तदपूर्वकरणं, 'कदाइ अप्पत्तपुवंति' कदाचिदप्राप्तपूर्वमिति ॥२०८७॥ अणिवित्तिकरणणामं णवमं गुणठाणयं च अधिगम्म । णिद्दाणिद्दा पयलापयला तघ थीणगिद्धिं च ॥२०८८॥ 'अणियट्टिकरणणामं गवमं गुणठाणमधिगम्म' अनिवृत्तिगुणस्थानमुपगम्य 'णिद्दाणिद्दा पयलापयला निद्रानिद्रां प्रचलाप्रचलां स्त्यानगृद्धि च ॥२०८८॥ णिरयगदियाणुपुचि णिरयगदिदं थावरं च सुहुमं च । साधारणादवुज्जोवतिरयगदि आणुपुन्वीए ॥२०८९।। 'णिरयगदियाणुपुटिव' नरकगत्यानुपूर्वि, नरकगति, स्थावरं, सूक्ष्म, साधारणं, आतपं, उद्योतं तिर्यग्गत्यानुपूर्वि ॥२०८९॥ करता है फिर मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यदृष्टि होकर क्षपक श्रेणिके अभिमुख होनेके लिये अप्रमत्त गुणस्थानमें अधःप्रवृत्तकरण करता है ॥२०८६॥ टो०-अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यात्वको अनन्त कहते हैं। उसके साथ बन्धनेसे अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि चार यहाँ संयोजना शब्दसे लिये गये हैं । मिथ्या पदार्थो के अभिनिवेशमें जो निमित्त होता है वह मिथ्यात्व नामक दर्शन मोहनीय है। जिस मिथ्यात्वका स्वरस अर्धशुद्ध हो जाता हैं उसे सम्यक् मिथ्यात्व कहते हैं। और जिस मिथ्यात्वका शुभ परिणामके द्वारा स्वरस क्षीण हो जाता है उसे सम्यक्त्व दर्शन मोहनीय कहते हैं। इसके उदय रहते हुए भी तत्त्वार्थका श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन होता है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन इन सातोंके अभावमें ही होता है। और क्षायिक सम्यग्दृष्टी ही क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता है ॥२०८६|| । गा०-क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर वह क्षपक श्रेणिपर आरोहण करके प्रथम अपूर्वकरण करता है। उसे अपूर्वकरण इसलिये कहते हैं कि उसने इस प्रकारके परिणाम कभी भी नीचेके गुणस्थानोंमें प्राप्त नहीं किये थे ॥२०८७।। गा०-उसके पश्चात् वह साधु अनिवृत्ति करण नामक नवम गुणस्थानको प्राप्त करके निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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