SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 956
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका साहू जहुत्तचारी वट्टतो अप्पमत्तकालम्मि | ज्झाणं उवेदि धम्मं पविट्टुकामो खवगसेटिं || २०८२॥ 'साहू जहुत्तचारी' शास्त्रोक्तेन मार्गेण प्रवर्तमानस्साधुरप्रमत्तगुणस्थानकाले धर्म्यं ध्यानमुपैति क्षपकश्रेण प्रवेष्टुकामः ॥२०८२ ॥ ध्यानपरिकरं बाह्यं प्रतिपादयति सुचि समे विवित्ते देसे णिज्जंतुए अणुण्णाए । उज्जुअआयददेहो अचलं बंधेत्तु पलिअंकं ।।२०८३।। 'सुचिए समे' शुचौ समे एकान्तदेशे निर्जन्तुके अनुज्ञाते तत्स्वामिभिः ऋज्वायतदेहः पल्यङ्कमचलं बद्ध्वा ॥२०८३ ॥ वीरासणमादीयं आसण समपादमादियं ठाणं । सम् अधिट्ठिो वा सिज्जमुत्ताणसयणादि || २०८४|| 'वीरासणादिगं' वीरासनादिकमासनं बद्ध्वा समपादादिना स्थितो वा अथवा उत्तानशयनादिना वा वृत्तः || २०८४॥ ८८९ पुव्वभणिदेण विघिणा ज्झादि ज्झाणं विसुद्धलेस्साओ । पवयणसंभिण्णमदी मोहस्स खयं करेमाणो || २०८५ || 'पुव्वभणिदेण विधिणा' पूर्वोक्तेन क्रमेण ध्याने प्रवर्तते विशुद्धलेश्यः । प्रवचनार्थमनुप्रविष्टमतिः मोहनीयं क्षयं नेतुमुद्यतः ।। २०८५ ॥ Jain Education International संजोयणाकसाए खवेदि झाणेण तेण सो पढमं । मिच्छत्तं सम्मिस्सं कमेण सम्मत्तमवि य तदो || २०८६ ॥ ' संजोयणाकसाए' अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति ध्यानेन तेनासौ प्रथमं मिथ्यात्वं, गा० - शास्त्रोक्त मार्गसे प्रवृत्ति करता हुआ साधु क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ होनेकी इच्छासे अप्रमत्त गुणस्थान में धर्मध्यान करता है ॥२०८२॥ ध्यानकी बाह्य सामग्री कहते हैं गा० -- पवित्र और जन्तुरहिन एकान्त प्रदेश में, उस स्थानके स्वामीकी आज्ञा प्राप्त करके, समभूमिभाग में शरीरको सीधा रखते हुए पल्यंकासन बांधकर अथवा वीरासन आदि लगाकर, अथवा दोनों पैरोंको समरूपसे रखते हुए खड़े होकर अथवा ऊपरको मुखकर शयन करते हुए या एक करवटसे लेटकर पूर्व में कही विधिके अनुसार विशुद्ध लेश्यापूर्वक मोहनीय कर्मका क्षय करनेमें तत्पर होता हुआ ध्यान करता है तथा चतुर्दश पूर्वो का अर्थ श्रवण करनेसे उसकी बुद्धि निर्मल होती है अर्थात् उसके श्रुतज्ञानावरणका प्रबल क्षयोपशम होता है ॥२०८३ - २०८५॥ गा० - प्रथम ही वह उस ध्यानके द्वारा अनन्तानुवन्धी क्रोध मान माया लोभका क्षय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy