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विजयोदया टीका
१४७ इंदियकसायपणिधाणं पि य । इंद्र आत्मा तस्य लिंगमंद्रियं । यत्करणं तत्कर्तृमद्यथा-परशुः । करणं च चक्षुरादिकं । तेनास्य की केनचिद्धाव्यमिति । तच्च द्विविधं द्रव्ये द्रियं भावेन्द्रियमिति । तत्र द्रव्येन्द्रिय नाम निर्वत्यपकरणो। मसरिकादिसंस्थानो यः शरीरावयवः कर्मणा निर्वय॑ते इति निर्वतिः । उपक्रियतेऽनुगृह्यते ज्ञानसाधनर्मिद्रियमनेनेत्युपकरणं अक्षिपत्रशुक्लकृष्णातारकादिकं । भावेंद्रियं नाम ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषोपलब्धिः, द्रव्ये द्रियनिमित्तरूपादयुपलब्धिश्च । इह इंद्रियशब्देन मनोज्ञामनोज्ञरूपादिसान्निध्ये रागकोपानुगरूपादिनिर्भासाः प्रतीतयो गृहीताः ।।
'कषयंति हिंसंति आत्मक्षेत्रमिति कषायाः । अथवा तरूणां वल्कलरसः कषायः, कषाय इव कपाय इत्युपमाद्वारेण क्रोधादो वर्तते कषायशब्द उपमार्थः । यथा कषायो वस्त्रादेः शीक्ल्यशुद्धिमपनयति, निराकर्तु चाशक्यस्तद्वदात्मनो ज्ञानदर्शनशुद्धि विनाशयति, आत्मावलग्नश्च दुःखेनापोह्यते इति । यथा वा पटादेः स्थैर्य करोति कषायस्तद्वदेव कर्मणां स्थितिप्रकर्षमात्मनि निदधाति क्रोधादिः । इन्द्रियाणि च कषायाश्च इन्द्रियकषायाः। इन्द्रियकषाययोः अप्रणिधानं अनाक्षेपः आत्मनो व्यावणितेंद्रियकषायापरिणतिः । 'गुत्ती ओ चेव' गुप्तयश्च । संसारकारणादात्मनो गोपनं गुप्तिः ।
संसारस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभवपरिवर्तनस्य कारणं कर्म ज्ञानावरणादि । तस्मात्संसारकारणादात्मनो
टो०-इन्द्र आत्माको कहते हैं । उसका लिंग इन्द्रिय है । जो करण होता है वह कर्तावाला है जैसे परश । चक्ष आदि करण है। अतः उनका कोई कर्ता होना चाहिये। वह इन्द्रिय दो प्रकार की है-भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय । उनमेंसे निर्वति और उपकरण द्रव्येन्द्रिय हैं । कर्मकेद्वारा जो मसूर आदिके आकाररूप शरीरका अवयव रचा जाता है वह निर्वृति है। और जिसके द्वारा - ज्ञानकी साधन इन्द्रिय उपकृत होती है वह उपकरण है। जैसे आँखके पलक, आँखकी काली सफेद तारिका। ज्ञानावरणके क्षयोपशम विशेषकी प्राप्तिको भावेन्द्रिय कहते हैं। और द्रव्येन्द्रियके निमित्तसे जो रूपादिका बोध होता है वह भी भावेन्द्रिय है। यहाँ इन्द्रिय शब्दसे मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपादिके प्राप्त होनेपर जो राग और कोपको लिये हुए रूपादिकी प्रतीति होती है उनको ग्रहण किया है।
जो 'कषयन्ति' आत्माका घात करती हैं वे कषाय हैं । अथवा वृक्षोंकी छालके रसको कषाय कहते हैं। कषायके समान जो है वह कषाय है। इस उपमाके द्वारा क्रोधादिको कपाय शब्दसे कहते हैं । यह उपमा रूप अर्थ हैं। जैसे कषाय-वृक्षकी छालका रस यदि वस्त्रपर लग जाता है तो उसकी सफेदीको हर लेता है और उसे दूर करना अशक्य होता है। उसी तरह क्रोधादि आत्माकी ज्ञान दर्शन रूप शुद्धिको नष्ट कर देता है। और आत्मासे सम्बद्ध होनेपर बड़े कष्टसे छटता है । तथा जैसे कषाय वस्त्रादिको टिकाऊ करती है वैसे ही क्रोधादि आत्मामें कर्मों की स्थितिको बढ़ाते हैं। इन इन्द्रिय और कषायमें अप्रणिधान अर्थात् आत्माका कहे गये इन्द्रिय और कषाय रूपसे परिणत न होना चारित्र विनय है।
संसार के कारणोसे आत्माके गोपनको गुप्ति कहते हैं। द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन भाव परिवर्तन और भव परिवर्तन रूप संसारके कारण ज्ञानावरण आदि कर्म हैं।
१. का ति मु० । २. वाल्क-आ० मु० ।
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