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________________ १४८ भगवती आराधना गोपनं रक्षा गुप्तिरित्याख्यायते । भावे क्तिः, अपादानसाधनो वा, यतो गोपनं सा गुप्तिः । गौपयतीति कर्तृसाधनो वा क्तिन् । शब्दार्थव्यवस्थेयम् । कि स्वरूपं तस्या इति चेत् । सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । कायवाङ्मनःकर्मणां प्राकाम्याभावो निग्रहः, यथेष्ट'चारिताभावो गुप्तिः । सम्यगिति विशेषणात्पूजापुरस्सरां क्रियां संयतो महानय मिति यशश्चानपेक्ष्य पारलौकिकमिदियसुखं वा क्रियमाणा गुप्तिरिति कथ्यते । इति सूरयो व्यवस्थिताः । रागकोपाभ्यां अनुपप्लुता नोइंद्रियमतिः मनोगुप्तिरिति ब्रूमहे । एवं चायं वक्ष्यति सूत्रकारो 'जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगत्ति' मिति । अनृतपरुषकर्कशमिथ्यात्वासंयमनिमित्तवचनानां अवक्तृता वाग्गुप्तिः । अप्रमत्ततया यदप्रत्यवेक्षिताप्रमाणितभूभागेऽचंक्रमणं, द्रव्यांतरादाननिक्षेपशयनासनक्रियाणां अकरणं कायगुप्तिः कायोत्सर्गो वा । 'समिदीओ' समितयः । प्राणिपीडापरिहारादरवतः सम्यगयनं प्रवृत्तिः समितिः । सम्यग्विशेषणाज्जीवनिकायस्वरूपज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा प्रवृत्तिर्गृहीता । ईर्ष्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः पंचसमितयः । ईर्यादिसमितीनां वाक्कायगुप्तिभ्यां अविशेषस्ततो भेदेनोपादानमनर्थकं, प्राणिपीडाकारिण्याः कायक्रियाया निवृत्तिः कायगुप्तिः, ईर्यादिसमितयश्च तथाभूतकायक्रियानिवृत्तिरूपा । अत्रोच्यते-निवृत्तिरूपा गुप्तयः प्रवृत्तिरूपाः समितयः इति भेदैः विशिष्टा गमनभाषणाभ्यवहरणग्रहणनिक्षेपणोत्सर्गक्रियाः समितय इति उच्यन्ते । 'एसो' उन संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षा गुप्ति कही जाती है । यहाँ भाव साधनमें क्ति प्रत्यय हुआ है । अथवा अपादान साधन कर लेना। जिससे गोपन हो वह गुप्ति है । अथवा जो रक्षा करता है वह गुप्ति है इस कर्तृसाधनमें क्तिन् प्रत्यय करनेसे गुप्ति शब्द बनता है, यह शब्दार्थ व्यवस्था है । गुप्तिका स्वरूप दूसरा है योगके सम्यक् निग्रहको गुप्ति कहते हैं। काय, वचन और मनकी क्रियाओंकी स्वेच्छारिताके अभावको निग्रह कहते हैं। स्वेच्छाचारिताका अभाव गुप्ति है। सम्यक् विशेषणसे पूजा पूर्वक क्रियाकी और यह महान संयमी है इस यशकी अपेक्षाके बिना तथा पारलौकिक इन्द्रिय सुखकी इच्छाके बिना जो योग निग्रह किया जाता है वह गुप्ति कही जाती है । ऐसा आचार्योंने कहा है। मनका राग और क्रोध आदिसे अप्रभावित होना मनोगुप्ति है। आगे ग्रन्थकार कहेंगेमनका रागादिसे निवृत्त होना मनोगुप्ति है। असत्य, कठोर और कर्कश वचनोंको तथा मिथ्यात्व और असंयममें निमित्त वचनोंको न बोलना वचनगुप्ति है। अप्रमादी होनेसे विना देखी और बिना बुहारी हुई भूमिमें गमन न करना तथा किसी वस्तुका उठाना, रखना, सोना बैठना आदि क्रियाओंका न करना कायगुप्ति है । अथवा कायसे ममत्वका त्याग कायगुप्ति है। प्राणियोंको पीड़ा न हो, इस भावसे सम्यक् रूपसे प्रवृत्ति करना समिति है। सम्यक् विशेषणसे जीवके समूहोंके स्वरूपका ज्ञान और श्रद्धान पूर्वक प्रवृत्ति ली गई है । समिति पाँच हैंईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग । शंका-ईर्या आदि समितियाँ वचन गुप्ति और काय गुप्तिसे भिन्न नहीं है । अतः उनका अलगसे कथन व्यर्थ है, क्योंकि प्राणियोंको पीड़ा पहुँचाने वाली शारीरिक क्रियासे निवृत्तिको काय गुप्ति कहते हैं। ईर्या आदि समितियाँ भी उसी प्रकारकी कायक्रियाकी निवृत्ति रूप हैं। समाधान-गुप्तियाँ निवृत्ति रूप हैं और समितियाँ प्रवत्ति रूप हैं, यह इन दोनोंमें भेद है । १. यथोक्त-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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