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________________ ८६० भगवती आराधना 'दंसणणाणविहीणा' सम्यग्दर्शनज्ञानहीनास्ततः स्वर्गाच्च्युता दुःखवेदनोर्मीके भवसागरे मुढा भ्रमन्ति, . संसारमण्डलं गताः ।।१९५८॥ जो मिच्छत्त गंतूण किण्हलेस्सादिपरिणदो मरदि । तल्लेस्सो सो जायइ जल्लेस्सो कुणदि सो कालं ।।१९५९।। 'जो मिच्छत्तं गंतूण' यः कृष्णलेश्यादिपरिणतो मिथ्यात्वं गत्वा म्रियते तल्लेश्यो जायते । परत्र च यल्लेश्यः कालं कृतवान् । फलत्ति ॥१९५९।। विजहणा निरूप्यते एवं कालगदम्स दु सरीरमंतोव्व होज्ज वाहिं वा । विज्जावच्चकरा तं सयं विकिंचंति जदणाए ॥१९६०॥ ‘एवं कालगदस्य' एवं कालगतस्य शरीरमन्तर्बहिर्वावस्थितं वैयावृत्यकराः स्वयमेवापनयन्ति यत्नेन ।।१९६०॥ समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उडुबंधे ।। पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीहिया सव्वसाधूहि ॥१९६१॥ 'समणाणं ठिविकप्पो' श्रमणानां स्थितिकल्पो वर्षावासे ऋतुप्रारम्भे च नियमेन सर्वे: साभिनिषीधिका नियमन प्रतिलेखनीया ॥१९६१॥ तस्या लक्षणमाचष्टे एगंता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसण्णा । वित्थिण्णा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ॥१९६२॥ गा०--जो क्षपक मिथ्यादृष्टि होकर कृष्ण आदि लेश्याके साथ मरता है वह जिस लेश्याके साथ मरता है उसी लेश्यावाला होकर जन्म लेता है ।।१५५९।। गा०-इस प्रकार नगर आदिके मध्य में या नगरसे बाहर मरणको प्राप्त उस क्षपकके शरीरको वैयावृत्य करनेवाले परिचारक मुनि स्वयं ही सावधानतापूर्वक हटा देते हैं ।।१९६०॥ गा०-वर्षा ऋतुके चार मासोंमें एक स्थानपर वास प्रारम्भ करते समय और ऋतुके प्रारम्भमें सब साधुओंको नियमसे निषोधिकाकी प्रतिलेखना करना चाहिये, यह साधुओंका स्थितिकल्प है ।।१९६१।। विशेषार्थ-मुमुक्षु साधुगण तो अपने शरीरमें भी निरीह होते हैं वे मृत क्षपकके शरीरको हटानेका प्रयत्न क्यों करते हैं ? ऐसी शंका होनेपर आचार्य उत्तर देते हैं कि पूर्व में साधुओंके जो दस स्थितिकल्पोंका कथन किया है, उसमें एक मास और पज्जोरावण कल्प भी हैं । उसके अनुसार जब साधु वर्षा योग धारण करते हैं या ऋतुका प्रारम्भ होता है तब उन्हें निषीधिका दर्शन करना आवश्यक होता है। जहाँ क्षपकके शरीरको स्थापित किया जाता है उस स्थानको निषीधिका कहते हैं। इसलिये निषद्याका दर्शन साधुओंका आवश्यक कर्तव्य होनेसे मुमुक्षु साधु निषद्याके निर्माणके लिये स्वयं प्रयत्न करते हैं ॥१९६१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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