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विजयोदया टीका कंदप्पभावणाए देवा कंदप्पिया मदा होंति । खिभिभावणा कालगदा होंति खिम्भिसया || १९५३ ।। अभिजोगभावणाए कालगदा आभिजोगिया हुंति । तह आसुरीए जुत्ता हवंति देवा असुरकाया ॥। १९५४ । सम्मोहणा कालं करितु दुंदुगा सुरा हुंति । अण्णपि देवदुग्गइ उवयंति विराधया मरणे ॥। १९५५ ॥ स्पष्टार्थमुत्तरगाथात्रयं ।। १९५३ ।। १९५४ ।। १९५५ ।।
इय जे विराधयित्ता मरणे असमाधिणा मरेज्जण्ह |
तं तेस बालमरणं होइ फलं तस्स पुच्तं ॥ १९५६।।
'इय जे विराधयित्ता' एवं ये रत्नत्रयं विनाश्य मरणकाले असमाधिना मृतिमुपयान्ति तत्तेषां बालमरणं भवति । तस्य बालमरणस्य फलं पूर्वमुक्तमेव ॥ १९५६ ॥
जे सम्मत्तं खवया विराधयित्ता पुणो मरेज्जण्हू |
ते भवणवा सिजो दिसभोमेज्जा वा सुरा होंति ।।१९५७॥
'जे सम्मतं खवगा' ये क्षपकाः सम्यक्त्वं विनाश्य म्रियन्ते भवनवासिनो ज्योतिष्का व्यन्तरा वा भवन्ति ।। १९५७ ॥
दंसणणाणविहूणा तदो चुदा दुक्खवेदणुम्मीए ।
संसारमण्डलगदा भमंति भवसागरे मूढा || १९५८ ।।
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भाव रखनेके कारण देवोंकी समितिसे बहिष्कृत सौधर्मादि कल्पोंके अन्तमें बसनेवाले चाण्डाल जातिके देव होते हैं ॥१९५२ ॥ गा० - कन्दर्प भावनासे मरकर कन्दर्प जातिके देव होते हैं । किल्विषभावनासे मरकर किल्विषक जातिके देव होते हैं ।। १९५३ ॥
गा०-आभियोग्य भावनासे मरकर आभियोग्य जातिके देव होते हैं । तथा आसुरी भावनासे मरकर असुर जातिके देव होते हैं || १९५४ ||
गा० - सम्मोहन भावनासे मरकर दुंदुग जातिके देव होते हैं । अन्य भी विराधना करके मरनेवाले मुनि देवगति में हीन देव होते हैं ।। १९५५ ।।
गा० - इस प्रकार जो क्षपक मरते समय रत्नत्रयको नष्ट करके असमाधिपूर्वक मरते हैं उनका वह मरण बालमरण होता है और उस बालमरणका फल पूर्व में कहा है || १९५६ ॥
गा० - जो क्षपक सम्यक्त्वको नष्ट करके मरते है वे मरकर भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिषीदेव होते हैं || १९५७||
गा०—–सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे रहित वे मूढ़देव स्वर्गसे च्युत होकर दुःखको वेदनारूपी लहरोंसे भरे संसारसमुद्र में भ्रमण करते हैं ॥१९५८||
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