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________________ ३०६ भगवती आराधना णाथमि' सर्वजगतो जीवानां नाथे । 'पवसंते य मरते' प्रवासं मृति वा प्रतिपद्यमाने । 'देसा किर सुण्णया होंति' देशाः किल शून्या भवन्ति ॥ ३८२॥ सव्वजयजीव दिए थेरे सव्वजगजीवणाथम्मि | पवसंतेय मरते होदि हु देसोंधयारोव्व ॥ ३८३ ॥ सीलड्ढगुणड्ढे हिंदु बहुस्सुदेहिं अवरोवतावीहि । पवसंते य मरते देसा ओखंडिया होंति || ३८४|| 'सीलड्ढगुणढह दु बहुस्सुर्दोह अवरोवतावीहि' शीलाढ्य बहुश्रुतैः अपरोपतापिभिः । 'पवसंते य मरते' मृति प्रवासं वा प्रतिपद्यमानैः । 'देसा ओखंडिदा होंति' जनपदा अवखंडिता भवन्ति । गतार्थोत्तरा गाथा ||३८४ ॥ सव्वस्स दायगाणं समसुहदुक्खाण णिष्पकंपाणं । दुक्खं खु विसहिदुं जे चिरप्पवासो वरगुरूणं ||३८५ ॥ 'सव्वस्स दायगाणं' ज्ञानदर्शनचारित्रतपोदानोद्यतानां । 'समसुहदुक्खाण' सुखदुःखयोः समानानां । 'णिष्पकंपाणं' परीषहेभ्यो निश्चलानां । 'वरगुरूणं' महतां गुरूणां । 'चिरप्पवासी' चिरकालप्रवासी वियोगः । 'दुक्खणं ख विसहिदु जे' सोढुमतीव दुष्करं ॥ ३८५॥ एवं परिसमाप्य अनुशासनाधिकारं परगणचर्यां निरूपयति एवं आउच्छित्ता सगणं अब्भुज्जदं पविहरंतो । आराघणाणिमित्तं परगणगमणे मई कुणदि || ३८६|| 'एवं आउच्छित्ता' आपृच्छघ । 'सगणं' स्वगणं । 'अब्भुज्जदं पविहरन्तो' प्रकर्षेण रत्नत्रये प्रवर्तमानः । 'आराहणाणिमित्तं' आराधनानिमित्तं । 'परगणगमणे मई कुणई' परगणगमने मति करोति ॥ ३८६|| के जीवोंके स्वामीके अन्यत्र चले जानेपर अथवा मरणको प्राप्त होनेपर देश शून्य हो जाते हैं ||३८२|| गा०- समस्त जगत् के जीवोंके हितकारी, ज्ञान और तपसे वृद्ध तथा सब जगत् के जीवों के स्वामीके अन्यत्र चले जाने या मरणको प्राप्त होनेपर देशमें अन्धकार-सा छा जाता है ||३८३ || Jain Education International गा० - शीलसे सम्पन्न और गुणोंसे समृद्ध, बहुश्रुत तथा दूसरोंको संताप न देने वाले महर्षियोंके प्रवासमें जानेपर या मरणको प्राप्त होनेपर सब देश उजाड़ सा प्रतीत होते हैं ॥ ३८४॥ गा० - जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपका दान करनेमें तत्पर रहते हैं, सुख और दुःख में समभाव रखते हैं तथा परीषहोंसे विचलित नहीं होते उन महान गुरुओंके वियोगका दुःख सहना अति कठिन है ||३८५ || इस प्रकार अनुशासन अधिकार को समाप्त करके परगणचर्याका कथन करते हैं गा० - इस प्रकार अपने गण से पूछकर रत्नत्रयमें उत्कृष्ट रूपसे प्रवृत्ति करने में तत्पर आचार्य आराधना करनेके लिये दूसरे गण में जानेका विचार स्थिर करते हैं ।। ३८६|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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