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________________ ५७६ भगवती आराधना वा विरूपं परिग्रहं । परिग्रहपरिपालनार्थं रात्रावपि भुङ्क्ते मदीयं भोजनं परे दृष्ट्वार्थिनो भवन्ति इति मन्यमानः ॥ ११२१ ॥ गंथो भयं नराणं सहोदरा एयरत्थजा जं ते । अण्णोष्णं मारेदु अत्थणिमित्तं मदिमकासी ॥ ११२२॥ 'गंथो भयं नराणां' ग्रन्थो नराणां भयं । ननु भयसंज्ञस्य कर्मणः उदयादुपजातः परिणाम आत्मनो भयं न वास्तुक्षेत्रादिको ग्रन्थः तथाभूतस्ततः किमुच्यते ग्रन्थो भयमिति, भयहेतुत्वाद्भयमिति न दोषः । 'सहोदरा' कोदरं प्रसवा अपि सन्तः 'एयरत्यजा' एकरध्यनगरे जाताः । 'जं' यस्मात् । 'ते अण्णोष्णं मारेदु' अन्योन्यं हन्तुं । 'अत्थणिमित्तं' वसुनिमित्तं 'मदिमकासो' बुद्धि कृतवन्तः ॥ ११२२।। अत्थनिमित्तमदिभयं जादं चोराणमेक्कमे केहि | मज्जे से य विसं संजोइय मारिया जं ते ।। ११२३।। 'अत्यणिमित्तं' धननिमित्तं । 'अदिभयं जादं' अतीव भयं जातं । 'चोराणं एक्कमेवकेहिं चौराणामन्योन्यैः सह । 'मज्जे मंसे य विसं संजोइय' मद्ये मांसे च विषं संयोज्य । 'मारिदा जं ते' यस्मात्तं मारिताः ।। ११२३॥ संगो महाभयं जं विहेडिदो सावगेण संतेण । पुत्रेण चैव अत्थे हिदम्मि णिहिदेल्लए साहुं ।।११२४॥ 'संगो महाभयं परिग्रहो महद्भयं । 'जं' यस्मात् । 'विहेडिदो' बाधितः ! 'सावगेण संतेण श्रावकेण सता । 'पुत्रेण चेव' पुत्रेणैव । 'णिहिदल्लगे अत्थे हिदंहि' निक्षिप्तेऽर्थे ते साधु ॥ ११२४ ।। विरूप परिग्रह होने पर ग्लानि होती है । मेरा भोजन देखकर दूसरे माँगेगे इसलिए रात में भी भोजन करता है । अथवा मालिककी सेवा में रहनेसे रात में भोजन करता है । इस तरह परिग्रहके कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुत्सा और रात्रि भोजन होते हैं ।। ११२१ ॥ गा० - टी० -- परिग्रह मनुष्य में भय उत्पन्न करता है । शङ्का - भय नामक कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ आत्माका परिणाम भय है। घर खेत आदि परिग्रह भय नहीं है तब आप परिग्रहको भय कैसे कहते हैं ? समाधान - परिग्रह भयका कारण होनेसे भय कही जाती हैं। एक ही माताके उदरसे उत्पन्न हुए और एक ही नगर में उत्पन्न हुए भी धनके लिए परस्परमें मारनेका भाव करते हैं ।। ११२२ ॥ गा० - धनके कारण चोरोंको परस्पर में एक दूसरेसे भय उत्पन्न हुआ । और उन्होंने मद्य और मांस में विष मिलाकर एक दूसरेको मार डाला ॥ ११२३॥ गा० - परिग्रह महाभयरूप है क्योंकि जमीन में गाड़े गये धनको अपना पुत्र ही ले गया और सत्पुरुष श्रावकको भी यह सन्देह हुआ कि मेरे इस पृथ्वीमें गड़े धनको साधु जानता था । सो कहीं इसी साधुने मेरा धन हरा हो । ऐसा सन्देह करके उस श्रावकने साधुपर कथाओंके द्वारा अपना सन्देह प्रकट किया ||११२४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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