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विजयोदया टीका
७३५ 'सक्खिकदरायहीलणे' साक्षीकृतराजपरिभवः । 'आवहदि रस्स जह महादोसं' आनयति यथा नरस्य महान्तं दोषं । 'तह जिणवरादि आसादणा' तथा अहंदाद्यासादनापि । 'दोसं महं कुणदि' दोषं महान्तं करोति ॥१६३१॥ तं महान्तं दोष कथयति--
तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महड्ढीए ।
एदे आसादंतो पावइ पारंचियं ठाणं ॥१६३२॥ 'तित्थयरपवयणसुदे' तीर्थकरान्, रत्नत्रयं, आगमं । 'आयरिए' आचार्यान् । 'गणहरे' गणधरान् । 'महड्ढोए' महद्धिकान् । 'एदे' एतान् । 'असादेतो' असादयन् । 'पावदि' प्राप्नोति । 'पारंचियं ठाणं' पारंचियनामधेयं प्रायश्चित्तस्थानं ॥१६३२।।
सक्खीकयरायासादणे हु दोसं करे हु एवभवे ।
भवकोडीस य दोसं जिणादि आसादणं कुणइ ।।१६३३॥ साक्षीकृतराजावमानजाताद्दोषादर्हदाद्यवमानजनितदोषो महानिति दर्शयति । स्पष्टार्था गाथा ॥१६३३॥
'मोक्खाभिलासिणो संजदस्स णिघणगमणं पि होइ वरं । पच्चक्खाणं भजंतस्स ण वरमरहदादिसक्खिकदा ॥१६३४॥ णिघणगमणमेयभवे णासो ण पुणो पुरिल्लजम्मेसु । णासं वयभंगो पुण कुणइ भवसएसु बहुएसु ॥१६३५॥ ण त हा दोसं पावइ पच्चक्खाणमकरित्त कालगदो ।
जह भंजणा हु पावदि पच्चक्खाणं महादोसं ॥१६३६।। उस महान दोषको कहते हैं
गा०-तीर्थङ्कर, रत्नत्रय, आगम, आचार्य और महान् ऋद्धिधारियोंकी आसादना करने वाला पारंचिक नामक प्रायश्चित्तका भागी होता है ॥१६३२।।
गा०-साक्षी बनाये गये राजाकी आसादना करनेपर तो एक ही भवमें दोषका भागी होता है। किन्तु अरहन्त आदिकी आसादना करनेपर करोड़ों भवोंमें दोषका भागी होता है। अतः साक्षी बनाये गये राजाकी अवज्ञाके दोषसे अर्हन्त आदिको अवज्ञासे होनेवाला दोष महान होता है ॥१६३३।।
मोक्षके अभिलाषी संयमीका मरना भी श्रेष्ठ होता है किन्तु अरहन्त आदिको साक्षी करके किये गये त्यागका भंग करना श्रेष्ठ नहीं है। मरणको प्राप्त होनेपर तो एक भवका ही विनाश होता है, आगेके भवोंका विनाश नहीं होता। किन्तु वृत्तका भंग बहुतसे भवोंमें विनाशकारी होता है ॥१६३४-३५ ।।
१. एते द्वे गाथे टीकाकारो नेच्छति ।
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