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________________ ७३४ भगवती आराधना 'अरहंत सिद्धकेवलि अविउत्ता सव्वसंघसक्खिस्स' । अर्हतः, सिद्धान्, केलिनः, तत्रस्था देवता सर्व च संघं साक्षित्वेनोपादाय कृतस्य । 'पच्चक्खाणस्स भंजणादो' प्रत्याख्यानस्य विनाशनात । 'वर' शोभनं 'मरणं' प्राणपरित्यागः ॥१६२८।। कथं मरणादशोभनता प्रत्याख्यानभंगस्येत्याशंकायामाचष्टे प्रबंधमुत्तरं प्रत्याख्यानभंजने दुष्टतां निवेदयितुम् आसादिदा तओ होंति तेण ते अप्पमाणकरणेण । राया विव सक्खिकदो विसंवदंतेण कज्जम्मि ।।१६२९।। 'आसादिवा' परिभूताः। 'तदो' ततः पश्चात् । प्रत्याख्यानग्रहणोत्तरकालं । तेन प्रत्याख्यानभंगकारिणा । ते अहंदादयः । 'अप्पमाणकरणेन' अप्रमाणकरणेन । तत्साक्षिक कर्म प्रतिज्ञातं विनाशयता ते अप्रमाणीकृता भवन्ति । अप्रमाणकरणेन च ते परिभता भवन्ति । 'राजा विव सक्खिकदो' राजेव साक्षीकृतः । 'कज्जम्मि विसंवंदंतेण' कार्ये विसंवदता। एतदुक्तं भवति राजसाक्षिकं प्रतिज्ञातं कर्म चान्यथा कुर्वता राजा यथा परिभूतो भवति एवमर्हदादय इति ॥१६२९।।। जइ दे कदा पमाणं अरहंतादी हवेज्ज खवएण । तस्सक्खिदं कयं सो पच्चक्खाणं ण भंजिज्ज ।।१६३०।। 'जइ दे कदा पमाणं' यदि ते कृताः प्रमाणं । 'अरहंतादी' अर्हदादयः । 'भवेज्ज' भवेयुः । 'खवएण' क्षपकेण । 'तस्सक्खिदं कवं पच्चक्लाण' तत्साक्षिकं कृतं प्रत्याख्यानं । 'सो ण भंजिज्ज' क्षपको न नाशयेत् ॥१६३०॥ सक्खिकदरायहीलणमावहइ परस्स जह महादोसं । तह जिणवरादिआसादणा वि दोसं महं कुणदि ।।१६३१।। गा०-अरहन्त, सिद्ध, केवली, उस स्थानके वासी देवता और सर्व संघको साक्षी बनाकर ग्रहण किये त्यागको तोड़नेसे मरण श्रेष्ठ है ।।१६२८॥ त्यागका भंग करना मरनेसे भी बुरा कैसे है ऐसी शंका होनेपर त्यागके भंगकी बुराई कहते हैं गा०-जैसे राजाको साक्षी बनाकर किये गये कार्यमें विसंवाद करनेवाला पुरुष राजाकी अवज्ञा करनेका दोषी होता है। वैसे ही अरहन्त आदि पंचपरमेष्ठीकी साक्षीपूर्वक स्वीकार किये गये त्यागको तोड़नेवाला मुनि अरहन्त आदिको भी प्रमाण न माननेसे उनकी अवज्ञा करनेका दोषी होता है ।।१६२९।। गा०-यदि हे क्षपक ! तुम अरहंत आदिको प्रमाण मानते हो तो तुम्हें उनकी साक्षिपूर्वक किये गये त्यागको भंग नहीं करना चाहिये ।। ६३०॥ गा-जैसे राजाको साक्षी बनाकर उनकी अवज्ञा करना मनुष्यको महादोषका भागी बनाता है वैसे ही अर्हन्त आदिको आसादना भी महादोषको करनेवाली है ॥१६३१॥ १. न अभ्यास्ये-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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