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________________ भगवती आराधना 'ण तहा बोसं पावधि' न तथा दोषं प्राप्नोति । 'पच्चक्लाणमकरित्तु' प्रत्याख्यानमकृत्वा । कालगदो मृतः । 'जह भंजतो पावदि' यथा प्रत्याख्यानभंगान्महादोषं प्राप्नोति ॥१६३४।।१६३५।।१६३६॥ प्रत्याख्याताहारसेवा हि प्रत्याख्यानभंगः स चांहारः प्रार्थ्यमानो हिंसादिदोषानखिलानानयतीति निगदति आहारत्थं हिंसइ भणइ असच्चं करेइ तेणेक्कं । रूसइ लुब्भइ मायं करेइ परिगिण्हदि य संगे ॥१६३७।। 'आहारत्थं हिंसई' आहारार्थं षड़जीवनिकायान्हिनस्ति । असत्यं भणति, स्तंन्यं करोति । रुष्यत्यलाभे, लुभ्यति लाभे, मायां करोति, परिगृण्हाति संगान् ।।१६३७।। होइ णरो णिल्लज्जो पयहइ तवणाणदंसणचरित्तं । आमिसकलिणा ठइओ छायं मइलेइ य कुलस्स ॥१६३८॥ 'होइ गरो जिल्लज्जो' निर्लज्जो भवति नरः आहारार्थ परयाञ्चाकरणात् । प्रजहाति च तपो, ज्ञानं दर्शनं चारित्रं च । आमिषाख्यन कलिनावष्टब्धः छायां कुलस्य मलिनयति परोच्छिष्टभोजनादिना ॥१६३८।। णासदि बुद्धी जिब्भावसस्स मंदा वि होदि तिक्खा वि । जो णिगसिलेसलग्गो व होइ पुरिसो अणप्पवसो ॥१६३९॥ 'णासदि बुद्धी' बुद्धिनश्यति आहारलम्पटतया युक्तायुक्तविवेकाकरणात् । कस्य ? जिह्वावशस्य तीक्ष्णा पि सती पूर्व बुद्धिः कुंठा भवति । रसरागमलोपप्लुता अर्थयाथात्म्यं न पश्यतीति पारसीकक्लेशलग्नलिंग इव भवति पुरुषोऽनात्मवशः ॥१६३९।। गा०-बिना त्याग ग्रहण किये मरनेपर इतना दोष नहीं होता जितना महादोष त्याग लेकर उसका भंग करनेपर होता है ।।१६३६।। त्यागे हुए आहारको ग्रहण करना व्रतभंग है। वह आहार हिंसा आदि सब दोषोंको लानेवाला है यह कहते हैं गा०-आहारके लिये मनुष्य छहकायके जीवोंका घात करता है। असत्य बोलता है, चोरी करता है। आहार न मिलनेपर क्रोध करता है । मिलनेपर उसका लोभ करता है। मायाचार करता है। घर पत्नी आदि परिग्रह स्वीकार करता है ॥१६३७॥ गा०–आहारके लिये मनुष्य निर्लज्ज होता है क्योंकि दूसरोंसे माँगता है। अपना तप, ज्ञान, दर्शन और चारित्र तक त्याग देता है । आहाररूपी कलिके द्वारा ग्रस्त होकर अपने कुल की छायाको मलिन करता है दूसरोंका झूठा भोजन खाता है ॥१६३८॥ . गा०-जो जिह्वाके वशीभूत है उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है क्योंकि भोजनका लम्पटो होनेसे वह भक्ष्य अभक्ष्यका विचार नहीं करता। यदि उसकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है तो वह मन्द हो जाती है क्योंकि रसोंमें रागरूपी मलसे लिप्त होनेसे बुद्धि भक्ष्य वस्तुके यथार्थ स्वरूपको नहीं १. जोणिकविलेस-अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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