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________________ विजयोदया टीका ७३७ धीरत्तणमाहप्पं कदण्णदं विणयधम्मसद्धाओ । पयहइ कुणइ अणत्थं गललग्गो मच्छओ चेव ॥१६४०॥ 'धीरत्तं' धीरत्वं, माहात्म्यं, कृतज्ञतां, विनयं, धर्मश्रद्धां च प्रजहाति । करोत्यनर्थश्रद्धां च । प्रजहाति करोत्यनर्थमात्मनः । गलावलग्नमत्स्य इव ।।१६४०॥ आहारत्थं पुरिसो माणी कुलजादि पहियकित्ती वि । भुंजंति अभोज्जाए कुणइ कम्मं अकिच्चं खु ॥१६४१।। 'आहारत्य'-आहारार्थ, भुंजते अभोज्यानि पुरुषो मानी कुलीनः, प्रथितकीर्तिरपि अकरणीयं करोति ॥१६४१॥ आहारत्थं मज्जारिसुंसुमारी अही मणुस्सी वि । दुब्भिक्खादिसु खायंति पुत्तभंडाणि दइयाणि ॥१६४२।। इहपरलोइयदुक्खाणि आवहंते णरस्स जे दोसा । ते दोसे कुणइ णरो सव्वे आहारगिद्धीए ॥१६४३॥ स्पष्टम् उत्तरगाथाद्वयम् ॥१६४२॥१६४३।। आहारलोलुपतया स्वयंभूरमणसमुद्रे तिमितिमिगिलादयो मत्स्या महाकाया योजनसहस्रायामाः षण्मासं विवृतवदनाः स्वपन्ति । निद्राविमोक्षानन्तरं पिहिताननाः स्वंजठरप्रविष्टंमत्स्यादीनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशति । तत्कर्णावलग्नमलाहाराः शालिसिक्यमात्रतनुत्वाच्च शालिसिक्थसंज्ञकाः यदीदशमस्माकं शरीरं भवेत् किं निःसतु एकोऽपि जन्तुर्लभते ? सर्वान्भक्षयामीति कृतमनःप्रणिधानास्ते तमेवावधिस्थानं प्रविशति । इति कथयति गाथयादेख पाती। तथा आहारका लम्पटी मनुष्य विषय सेवन करते हुए मनुष्यकी तरह अपने वशमें नहीं रहता ॥१६३९॥ गा०-वह धीरता, माहात्म्य, कृतज्ञता, विनय और धर्मश्रद्धाको भी आहारके पीछे छोड़ देता है और गले में फंसी मछलीकी तरह अनर्थ करता है ।।१६४०॥ . गा०-मानी, कुलीन और प्रख्यातकीर्ति वाला भी आहारके लिये अभक्ष्यका भक्षण करता है और न करने योग्य कर्म करता है ॥१६४१।। __गा.-भूखसे पीड़ित होनेपर बिल्ली, मच्छ, सपिणि और दुर्भिक्ष आदिमें मनुष्य भी अपने प्रिय पुत्रोंको खा जाते हैं ॥१६४२।। गाल-मनुष्यके जो दोष इस लोक और परलोकमें दुःखदायी हैं वे सब दोष मनुष्य आहारकी लम्पटताके कारण ही करता है ।।१६४३।। आगे कहते हैं-स्वयंभृरमण समुद्र में तिमितिमिंगल आदि महाकाय वाले महामच्छ जो एक हजार योजन लम्बे होते हैं, छह मास तक मुंह खोले सोते रहते हैं। जागने पर अपने मुख में घुसे मच्छों आदिको खाकर मरकर सातवें नरकमें जाते हैं। उसके कानमें एक सालिसिक्थ नामक मत्स्य रहता है जो उसके कानका मैल खाता है। उसका शरीर चावलके बराबर होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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