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________________ विजयोदया टीका ३७ अनुपगतमिथ्यात्वस्य अविचलितचारित्रस्यापि परीषहपरिभवादुपगतसंक्लेशस्य महती संसृतिरिति भयोपदर्शनेन संवलेशः परित्याज्यः इति निगदति सूत्रकारः ‘समिदोसु य' इत्यादिना-- समिदिसु य गुत्तीसु य दंसणणाणे य णिरदिचाराणं । . आसादणबहुलाणं उक्कस्सं अंतरं होई ।। १६ ॥ अन्ये व्याचक्षते--"उक्तस्यानंतसंसारस्य प्रमाणप्रतिपादनाय आयाता गाथा अनंतस्यानंतविकल्पत्वात् अनंतविशेषः प्रतिपादनीयः" इति । अस्यां व्याख्यायां उक्कस्सं अंतर होदीत्येतावदुपयुज्यते । इतरस्य वचनसंदर्भस्य अनर्थकत्वं प्रसज्यत इति । समिदीसु य सम्यगयनादिषु अयनं समितिः, सम्यकश्रुतज्ञान निरूपितक्रमण गमनादिष वत्तिः समितिः । सावद्ययोगेभ्य आत्मनो गोपनं गुप्तिः । वस्तुयाथात्म्यश्रद्धानं दर्शनं । अपेतमिथ्यात्वकलङ्कस्यात्मनो वस्तुतत्त्वपरिज्ञानं मत्यादिक्षायोपशमिकं ज्ञानं । क्षायिके सति ज्ञाने आसादनाया असंभवः । मोहजन्यत्वात्संक्लेशस्य, मोहस्य च केवलज्ञानोत्पत्तेः प्रागेव विनष्टत्वात । तथा चोक्तं-'मोहक्षयाज्ज्ञानवर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् [त० सू० १०१] इति । वीतरागसम्यक्त्वं चेह न गृहीतम् । मोहप्रलय उससे च्युत हो गया तो संसारमें चिरकालतक भ्रमण करना पड़ता है । इस चिरकाल परिभ्रमणके बहानेसे सूत्रकार उसकी मुक्तिका अभाव बतलाते हैं ।।१५।। जो मिथ्यात्वभावको प्राप्त नहीं हुआ है जिसका चारित्र भी निश्चल है फिर भी यदि वह परीषहसे घबराकर संक्लेशभावको प्राप्त होता है तो उसका संसार सुदीर्घ है, ऐसा भय दिखलाकर ग्रन्थकार संक्लेशको त्यागनेका उपदेश देते हैं गा०-समितियोंमें और गुप्तियोंमें और दर्शन और ज्ञानमें जो अतिचार रहित प्रवृत्ति करते हैं। किन्तु मरणकाल आने पर परीषहके भयसे समिति आदिमें बारम्बार दोष लगाते हुए संक्लेश परिणाम करते हैं उनका अर्धपुद्गल परावर्तन काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। अर्थात् मरते समय रत्नत्रयसे च्युत होकर पुनः उतना काल बीतने पर रत्नत्रय प्राप्त करते हैं ।।१६।। टीका-अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि 'ऊपर जो अनन्त संसार कहा है उसका प्रमाण बतलानेके लिए यह गाथा आई है। क्योंकि अनन्तके अनन्त भेद होते हैं अतः अनन्तविशेषका कथन करना आवश्यक था । इस व्याख्या में 'उत्कृष्ट अन्तर होता है' गाथा के इस अन्तिम चरणकी उपयुक्तता तो होती है, किन्तु शेष वचन रचना निरर्थक पड़ जाती है । अस्तु । सम्यक् अयनको समिति कहते हैं। सम्यक् अर्थात् श्रुतज्ञानमें कहे गये क्रमके अनुसार चलने आदिमें प्रवृत्ति करना समिति है। सावध योगोंसे अर्थात् सदोष मन वचन कायकी प्रवृत्तिसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षण करना गुप्ति है । वस्तुका जैसा स्वरूप है वैसा ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। मिथ्यात्वरूप कलंकसे रहित आत्माके वस्तुतत्त्वके परिज्ञानको मति आदिरूप क्षायोपशमिक ज्ञान कहते हैं। यहाँ क्षायोपशमिक ज्ञानको ही लेनेका हेतु यह है कि क्षायिकज्ञानके होते उसमें दोष लगाना असम्भव है। क्योंकि संक्लेश मोहके उदयसे होता है और मोहकर्म केवलज्ञानके उत्पन्न होनेसे पहले ही नष्ट हो जाता है। कहा भी है-'मोहके क्षयसे तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान होता है।' यहां दर्शनसे वीतराग सम्यक्त्वका ग्रहण नहीं किया गया है क्योंकि मोहका नाश हए विना वीतरागता नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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