SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ भगवती आराधना परिणतिरिह चारित्रशब्देन गृहीता, ततोऽयमर्थो लब्धः 'सारः फलमिति । 'भणिदा' कथिता ! 'आराहणा' आराधना मृतो अनतिचाररत्नत्रयता । 'पवयणम्मि' प्रोच्येत दृष्टष्टत्रमाणाविरुद्धेन जीवादयः पदार्था अनेनास्मिन्वेति प्रवचनं जिनागमस्तस्मिन् । अतिशयवत्ताराधनाया प्रक्रांताया उपसंहरत्युत्तरार्द्धेन सव्वस्स इत्यादिना । 'सव्वस्त' नमस्तस्य । 'पवयणस्स' जिनागमस्य । 'सारो' अतिशयः । 'आराहणा' आराधना व्यावर्णितरूपा । 'तम्हा' तस्मात् । च शब्द एवकारार्थः । स चाराधनाशब्दात्परतो द्रष्टव्यः आराधनैव सार इति । अन्यत्र व्याख्या - यदिदमुक्तं फलं एतच्चारित्रमात्रादुत विशिष्टाज्जायते इत्याह-जम्हा चरित्तसारो इति । किं पातनिकार्थो गाथायां संवादमुपयाति न चेतीत्यत्र श्रोतारः प्रमाणं ||१४|| कस्मात् ? अतिशयवत्तयाराधनागमेऽभिहिता यस्मात् सुचिरमवि णिरदिचारं विहरित्ता णाणदंसणचरिते ॥ मरणे विराधयित्ता अनंतसंसारिओ दिट्ठो ॥ १५ ॥ 'सुचिरं ' अतिचिरकालमपि । 'णिरदिचारं' अतिचारमंतरेण । 'विरहिता' विहृत्य । क्व ? 'णाणदंसणचरिते' ज्ञाने श्रद्धाने समतायां च । 'मरणे' भवपर्याविनाशकाले । विराधयित्ता रत्नत्रयपरिणामान्विनाश्य मिथ्यादर्शनेऽज्ञानेऽसंयमे परिणतो भूत्वा । 'अनंतसंसारिओ' अनंतभवपर्यायपरिवर्तने उद्यतः । 'दिठ्ठी' दृष्टः | देशोनं पूर्वकोटीकालं अनतिचाररत्नत्रयप्रवृत्तानामपि मरणकाले ततः प्रच्युतानां मुक्त्यभावं संसारे चिरपरिभ्रमणकथनव्याजेन दर्शनं दर्शयति सूत्रकारः ॥ १५ ॥ यहाँ चारित्रशब्दसे ग्रहण किया है । तब यह अर्थ प्राप्त होता है कि चारित्रका फल, प्रवचन मेंजिसके द्वारा अथवा जिसमें जीवादिपदार्थ प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे अविरुद्ध कहे जाते हैं। वह प्रवचन अर्थात् जिनागम है उसमें आराधनाको कहा है । गाथाके उत्तरार्धद्वारा प्रकरण प्राप्त आराधनाकी अतिशयवत्ताका उपसंहार करते हैं--इस कारण से समस्त जिनागमका सार आराधना है । गाथामें जो 'य' च शब्द है वह एवकार ( ही ) के अर्थमें है और उसे आराधना शब्दके आगे लगाना चाहिए अर्थात् जिनागमका सार आराधना ही है । अन्यत्र इस गाथाकी व्याख्या इस प्रकार की गई है - यह जो फल कहा है वह चारित्र सामान्यसे प्राप्त होता है या विशिष्टचारित्रसे प्राप्त होता है । इसके उत्तरमें आचार्यने 'जम्हा चरितसारो' आदि गाथा कही है । हमारा प्रश्न है कि इस आपकी उत्थानिकाके अर्थका गाथाके साथ मेल खाता है क्या ? इस विषय में श्रोतागण ही प्रमाण हैं । हम अधिक क्या कहें ||१४|| आगममें आराधनाकी अतिशयवत्ता क्यों कही है इसका समाधान करते हैं गा-ज्ञान श्रद्धान और चारित्रमें बहुत कालतक भी अतिचार विना विहार करके मरणकालमें विराधना करके अनन्तभव धारण करनेवाला देखा गया है ।। १५ ।। टी० - ज्ञानमें, दर्शनमें और समतारूप चारित्रमें सुदीर्घकालतक अतिचार रहित विहार करके भी अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्रका निर्दोष पालन करके भी जब उस पर्यायके विनाशका समय आवे अर्थात् मरते समय यदि रत्नत्रयरूप परिणामोंको नष्ट करके मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयमरूप परिणामोंको अपनावे तो उसका संसार अनन्त होता है । अर्थात् कर्मभूमिमें मनुष्यपर्यायकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटी होती है । आठ वर्षकी अवस्थाके पश्चात् संयम धारण करके कुछ कम एक पूर्वकोटिकालतक उसका निरतिचार पालन किया । किन्तु मरणकाल आनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy