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________________ विजयोदया टीका ३५ जायते ? एवमिति तदनुभवविरुद्धमाचरतीत्युपेक्ष्यते, न चेत्कथमुक्तमित्युच्यते । किंच तस्य सूत्रस्य या पातनिका कृता ज्ञानदर्शनचारित्रेषु किं प्रधानमित्यत्र प्रश्ने, प्रधानस्य निरूपणार्थ सूत्रमित्यनया च विरुव्यते। चरणस्स तस्स सारो णिब्याणमणुत्तरं भणियं' इत्युक्तं चारित्रस्य समतारूपस्य फलमशेषकर्मापाय इत्युक्तं । कर्मापायो हि कथं पुरुषार्थः दुःखनिवृत्तिः सुखं चाभिमतं फलमित्यारेकायां प्रधानपुरुषार्थस्य अखिलबाधाव्यपगमरूपस्य सुखस्य निबंधनतयोपयोगितामाचष्टे सकलकर्मापायस्य णिव्वाणस्स य सारो अव्वाबाहं सुहं अणोवमियं ॥ कायव्वा हु तदह्र आदहिदगवेसिणा चेट्ठा ॥१३॥ "णिव्वाणस्स य सारो' इति । निरवशेषकर्मापायस्य सारः फलं । अन्वाबाहं कर्मजन्यसकलदुःखापायः कारणाभावे कार्यस्य अनुत्पत्तेः । 'अणोवमियं' उपमातीतं । 'कादम्वा' कर्तव्या। 'चेट्ठा' चेष्टा। 'तदळं' अव्यावाधसुखार्थम् । 'आदहिदगवेसिणा' आत्महितं मृगयता। क्व चेष्टा कार्या ? आराधनायां मृतावनतिचारज्ञानदर्शनचारित्रपरिणतिरूपायां । कस्मात् ? जम्हा चरित्तसारो भणिया आराहणा पवयणम्मि । सव्वस्स पवयणस्स य सारो आराहणातम्हा ।।१४।। 'जम्हा' यस्मात् 'चरित्तसारो' चारित्रस्य ज्ञाने दर्शने पापक्रियानिवृत्तौ च प्रयतस्य, चरणं प्रवृत्तिः गाथासूत्र में कहा है तो यह मिथ्या कथन है 'ज्ञान और दर्शनका सार यथाख्यात चारित्र है' इस वाक्यसे 'ज्ञान और दर्शनसे चारित्र विशेष उपकारी है' ऐसा बोध होता है क्या ? यदि कहोगे 'होता है तो आपका आचरण अनुभव विरुद्ध है अतः वह उपेक्षणीय है। यदि कहोगे 'नहीं होता' तो आपने ऐसा क्यों कहा? दूसरे, उस गाथासूत्रकी जो उत्थानिका है उसमें 'ज्ञान दर्शन चारित्रमें कौन प्रधान है' ऐसा प्रश्न करनेपर प्रधानका कथन करनेके लिए गाथासूत्र कहते हैं ऐसा कहा है, उससे भी विरोध आता है ॥१२॥ • 'चरणस्स तस्स सारो' इत्यादिमें समतारूप चारित्रका फल समस्त कर्मोंका विनाश कहा है। किन्तु कर्मोंका विनाश पुरुषार्थ कैसे है ? दुःखकी निवृत्ति और सुखको फल कहा है ऐसी आशङ्का होनेपर ग्रन्थकार प्रधान पुरुषार्थ जो बाधारहित सुख है, उसका कारण होनेसे समस्तकर्मोंके विनाशकी उपयोगिता बतलाते हैं गा०-निर्वाणका सार बांधारहित उपमारहित सुख है। अतः आत्महितके खोजीको उस अव्याबाध सुखकी प्राप्तिके लिए चेष्टा करना चाहिए ॥१३।। टो०-समस्तकर्मोंके विनाशका फल कर्मजन्य समस्त दुःखोंसे रहित, उपमारहित सुख है। अतः आत्महितके खोजीको, उस बाधारहित सुखके लिये, चेष्टा करना चाहिए। अर्थात् निरतिचार ज्ञानदर्शनचारित्रकी परिणतिरूप आराधनाको अपनाना चाहिए ॥१३॥ - गा०-क्योंकि प्रवचनमें चारित्रका फल आराधना कहा है। इसलिए समस्त प्रवचनका सार आराधना ही है ॥१४॥ टो०-ज्ञानमें, दर्शनमें, और पापकर्मसे निवृत्तिमें जो प्रयत्नशील है उसकी परिणतिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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