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________________ विजयोदया टीका रौद्रं च 'न झाई' ना घ्याति । 'सुट्ठवहाणे' सुष्ठु उपधाने । शुद्धमपि 'अट्रुद्दाणि णासंति' आर्तरौद्रध्याने नाशयतः ।। १६९५ ॥ अट्टे उप्पारे रुद्द य चउच्विधे य जे मेदा । ते सव्वे परिजादि संथारगओ तओ खवओ || १६९६ ॥ 'अट्टे चदुप्पयारे' आर्तें चतुःप्रकारे, 'जे भेदा रुद्द य चदुग्विधे' ये 'भेदाः । 'ते सध्वे परिजाणदि' तान् सर्वान् विजानाति । 'संथारगदो' संस्तरगतः । 'तओ खवगो' असौ क्षपकः । यो यत् परिहरेच्छुस्स कथं तत्तत्त्वतोऽनवबुध्यमानो नियोगतः परिहरेदिच्छेद् वार्थे आर्तरौद्रं परिहरन् तस्मात् ज्ञातव्ये ते इति दर्शयति ।। १६९६ ॥ अणुण संपओगे इट्ठविओए परिस्सहणिदाणे । अहं कसायसहियं झाणं भणियं समासेण ॥१६९७|| तेणिक्कमो सहिंसा रक्खणेसु तह चैव छव्विहारंभे । रुद्द कसायसहियं झाणं भणियं समासेण || १६९८।। अवहट्ट अरुदे महाभये सुग्गदीए पच्चूहे | धम्मे सुक्के य सदा होदि समण्णागदमदी सो || १६९९ ।। 'अवहट्ट' अपहृत्य । 'अट्टरुद्दे' आर्त्तरौद्रे । महतो भयस्य हेतुत्वान्महाभये । 'सुग्गदीए पन्चूहे ' सुगविघ्नभूते । 'धम्मे सुक्के वा' धर्म्ये शुक्ले वा ध्यानेऽसौ क्षपकः । 'समण्णागदमदी सो होदि' सम्यगनुपरतमतिर्भवति ।।१६९७।। १६९८।।१६९९।। ७५५ आर्त और रौद्र ध्यान सुष्ठु उपधान अर्थात् संक्लेशरहित परिणामोंसे, विशुद्ध अर्थात् कर्मों को निर्जीर्ण करने की शक्तिसहित भी समीचीन ध्यानको नष्ट कर देते हैं ।। १६९५ ।। गा० - आर्तध्यानके जो चार भेद हैं और रौद्रध्यानके जो चार भेद हैं। सब सस्तरपर आरूढ़ क्षपक जानता है । जो जिसको त्यागना चाहता है वह उसको यदि यथार्थरूपसे नहीं जानता तो कैसे उसका त्याग कर सकता है । अतः क्षपकको आर्त और रौद्र ध्यानोंका स्वरूप जानना चाहिये | इसलिये उनको भी बतलाते हैं ॥१६९६ ।। गा० अनिष्ट संयोग, इष्टवियोग, परीषह ( वेदना ) और निदान ये संक्षेपमें कषायसहित आर्तध्यानके चार भेद हैं ॥१६९७ ॥ गा०-- चोरी, झूठ, और हिंसाका रक्षण तथा छह प्रकारके आरम्भको लेकर संक्षेपसे कषाय सहित रौद्रध्यानके चार भेद हैं ।। १६९८|| Jain Education International गा० - सुगति में विघ्न डालनेवाले और महान् भयके कारण होनेसे महाभयरूप रौद्र और आर्तध्यानको त्यागकर वह सम्यक् वुद्धिसम्पन्न क्षपक धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानको ध्याता है ॥१६९९॥ १. दिच्छदि वार्य -अ० । ९५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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