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________________ ८२० भगवती आराधना क्षमामार्दवार्जवसंतोषाः, कषायप्रमादस्य प्रत्यनीकभूताः। ज्ञानभावना, रागद्वषेन्द्रियविषयविविक्तदेशाव- . स्थानं ज्ञानेन मनःप्रणिधानं, इन्द्रियविषयरागद्वेषजदोषाणामनुस्मरणं, विषयोपलब्धावनादरश्चेति एते इन्द्रियप्रमादप्रतिपक्षाः । तथा चोक्तं वराङ्गनाङ्गानि च रागचोदितो यदृच्छया वा न निरीक्ष्य रज्यति । तथैव रूपाण्यशुभानि वीक्षितुं, न नेच्छति द्वेषवशप्रचोदितः ॥१॥ निरीक्ष्य न द्वेष्टि यवृच्छयापि च भवेत्स जेता पुरुषः स्वचक्षुषः । सुगीतवावित्रभवान्मनोहरान स्वरान्मनोज्ञान्युवतीरितानपि ॥२॥ न वाञ्छति श्रोतुमिहादरेण यो यदच्छया वा न निशम्य रज्यति । स्वराननेकानमनोहरानपि न नेच्छति द्वेषवशेन सेवितुं ॥३॥ निशम्य न ष्टि यदृच्छयापि च भवेत्स जेता श्रवणेन्द्रियस्य च । तुरुष्ककालागुरुकुष्ठकुकुमान् तमालपत्रोत्पलचम्पकादिकानू ॥४॥ शुभं न जिघ्रासति गन्धमादरात् यदृच्छयाघ्राय न चापि रज्यति । तथैव गन्धानशुभानपीह यो न नेच्छति भ्रातुमसूनतद्विषान् ॥५॥ निषेव्य न द्वष्टि यदृच्छयापि च भवेत्स नासेन्द्रियजिन्नरोत्तमः । न यो महामृष्टविशिष्ट भोजनप्रि'यापलेहापि मनोहरान् रसान् ॥६॥ निषेवितुं रागवशेन काङ्क्षति यदच्छया या न निषेव्य रज्यति । रसाननेकानमनोहरानपि न नेच्छति द्वषवशेन सेवितुं ॥७॥ निषेव्य न द्वेष्टि यदृच्छयापि च भवेत्स जेता रसनेन्द्रियस्य च । कषायनामक प्रमादके विरोधी हैं। ज्ञानकी भावना, रागद्वषके कारण इन्द्रिय विषयोंसे रहित देशमें रहना, ज्ञानके द्वारा मनको एकाग्र करना, इन्द्रियोंके विषयोंमें रागद्वेषसे उत्पन्न हुए दोषोंका स्मरण करना, और विषयोंकी उपलब्धिमें आदरभाव न होना, ये इन्द्रिय नामक प्रमादके विरोधी हैं। कहा भी है रागसे प्रेरित होकर अथवा स्वेच्छासे सुन्दर स्त्रीके अंगोंको देखकर राग नहीं करता। तथा द्वषसे प्रेरित होकर अशुभ रूपोंको देखनेकी इच्छा नहीं करता। जो यदृच्छासे देखकर भी द्वेष नहीं करता वह पुरुष अपनी आँखोंका विजेता है। अच्छे गीत, और वादित्रोंके मनोहर स्वरोंको तथा युवती स्त्रियोंके द्वारा कहे गये शब्दोंको भी जो आदरपूर्वक सुनना नहीं चाहता और अचानक सुनकर भी उनमें अनुराग नहीं करता। तथा द्वषवश अनेक अमनोहर स्वरोंको भी सुननेकी इच्छा नहीं करता। अचानक अमनोज्ञ स्वर सुनाई पड़ जाये तो उससे द्वेष नहीं करता, वह श्रवणेन्द्रियका जेता है। लोबान, काला अगर, कुष्ठ, कुंकुम, तमालपत्र, कमल, चम्पक आदिकी सुगन्धको आदरभावसे जो नहीं सूंघता, और अचानक सूंघनेमें आ जाये तो उसमें राग नहीं करता। उसी प्रकार जो अशुभ गन्धको भी सूंघनेसे द्वष नहीं करता। और अचानक दुर्गन्ध सूंघ ले तो उससे द्वेष नहीं करता वह श्रेष्ठ पुरुष नासा इन्द्रियको जीतनेवाला है । जो अत्यन्त मीठे विशिष्ट भोजनको और मनोहर रसोंको रागवश सेवन करना नहीं चाहता, अचानक सेवनमें आ जाये तो उसमें राग नहीं करता। तथा द्वषवश अनेक अमनोहर रसोंको भी सेवन १. प्रियः प्रलेहादिमनो मनोहरान् -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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