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________________ २१२ भगवती आराधना समाधि न प्राप्नुवन्त्येवेति । उपधिपरित्यागाभावे अभिमतसमाध्यभावो दोष आख्यातः ॥१६६।। पंचविहं जे सुद्धिं पत्ता णिखिलेण णिच्छिदमदीया । पंचविहं च विवेगं ते हु समाधि परमुवेंति ॥१६७।। के समाधि प्राप्नुवंतीत्यत्र आह-पंचविहं' पञ्चविधा, 'जे सुद्धि पत्ता' ये शुद्धि प्राप्ताः । 'णिखिलेण' साकल्येन । "णिच्छियमईगा' निश्चितमतयः । “पंचविहं' पञ्चविधं च 'विवेगं' विवेक 'ते हैं समाहिं परमति' ते स्फुटं समाधि परमुपयान्ति ॥१६७॥ का एषा पंचविधा शुद्धिरित्याह आलोयणाए सेज्जासंथारुवहीण भत्तपाणस्स । वेज्जावच्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ ।।१६८।। 'आलोयणाए' आलोचनायाः शुद्धिः, शय्यासंस्तरयोः शुद्धिः, उपकरणशुद्धिः, भक्तपानशुद्धिः, वैयावृत्त्यकरणशुद्धिरिति पञ्चविधा । मायामृषारहितता आलोचनाशुद्धिः । मनोगतवक्रता माया। व्यलीकता चासौ मृषा । मायाकषायः स चाभ्यन्तरपरिग्रहः 'चत्तारि तह कसाया' इति वचनात् । मृषा कथं परिग्रहः इति चेत् उपधीयते अनेनेत्युपधिरिति शब्दव्युत्पत्ती उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यलीकेनेत्युपधिरित्युच्यते । यत्र यस्यादरः कर्महेतो तत्सर्वमुपधिरेवेति भावः । उद्गमोत्पादनैषणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च वसतिसंस्तरयोः शुद्धिस्तामुपगतेन उद्गमादिदोषोहतयोर्वसतिसंस्तरयोस्त्यागः कृत इति भवत्युपधिउसे क्रियापद 'पावेंति' के परे लगाना चाहिए। परिग्रहत्यागके अभावमें इष्ट समाधिका अभाव नामक दोष कहा है ॥१६६।। गा०—पूर्णरूपसे निश्चित मति वाले जो पाँच प्रकारकी शुद्धिको और पाँच प्रकारके विवेक को प्राप्त हुए हैं, वे निश्चयसे परम समाधिको प्राप्त होते हैं ॥१६७।। टो०-कौन समाधि प्राप्त करते हैं यह इस गाथामें कहा है ।।१६७।। पाँच प्रकारकी शुद्धि कहते हैं गा०-आलोचना की शुद्धि, शय्याकी, संस्तरकी और परिग्रहकी शुद्धि, भक्तपानकी शुद्धि और वैयावृत्य करने वालोंकी शुद्धि, निश्चयसे शुद्धि पाँच प्रकारकी होती है ।।१६८|| टो०-माया और मृषासे रहित होना आलोचनाकी शुद्धि है । मनमें कुटिलताका होना माया है । असत्य भाषणको मृषा कहते हैं । माया कषाय है और वह अभ्यन्तर परिग्रह है। 'चार कषाय हैं' ऐसा आगमका वचन है। शङ्का-मृषा कैसे परिग्रह है ? समाधान-'उपधीयतेऽनेनेत्युपधिः' इस शब्द व्युत्पत्तिके करने पर 'अनेन' अर्थात् असत्य भाषणके द्वारा 'उपधीयते' कर्मका ग्रहण होता है अतः मृषा उपधि है । जिस कर्मके हेतुमें जिसका आदर है वह सब उपधि ही है यह कहनेका अभिप्राय है। उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित होना तथा 'यह मेरा है' इस प्रकार परिग्रहका भाव न होना वसति और संस्तरकी शुद्धि है। उस शुद्धिको जिसने स्वीकार किया उसने उद्गम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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