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________________ विजयोदया टीका त्यागः । उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्यां सत्यां उद्गमादिदोषदुष्टानां असंयमसाधनानां ममेदं भावमूलानां परिग्रहाणां त्यागोऽस्त्येव । संयतव्यावृत्त्यक्रमज्ञता वैयावृत्यकारिशुद्धिः सत्यां तस्यां असंयता अक्रमज्ञाश्च' न मम वैयावृत्त्यकरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवन्ति ॥ १६८ ॥ अह्वा दंसणणाणचरित्तसुद्धी य विणयसुद्धी य । आवाससुद्धी व पंच वियप्पा हवदि सुद्धी ||१६९ || 1 'अहवा' अथवा 'दंसणणाणचरित्तसुद्धो य, विनयसुद्धी य, आवासयसुद्धी वि य' आवश्यक शुद्धिश्चेति 'पंचवियप्पा' पञ्चविकल्पा 'हवइ सुद्धी' भवति शुद्धिः । निःशङ्कितत्वादिगुणपरिणतिर्दर्शनशुद्धिः तस्यां सत्यां शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सादीनां अशुभपरिणामानां परिग्रहाणां त्यागो भवति । काले पठनमित्यादिका ज्ञानशुद्धिः अस्यां सत्यां अकालपठनाद्याः क्रिया ज्ञानावरणमूलाः परित्यक्ता भवन्ति । पञ्चविंशतिभावनाश्चारित्रशुद्धिः । सत्यां तस्यां अनिगृहीतमनः प्रचारादिरशुभपरिणामोऽभ्यन्तरपरिग्रहस्त्यक्तो भवति । दृष्टफलानपेक्षिता विनयशुद्धिः । तस्यां सत्यामुपकरणादिलाभलोभो निरस्तो भवति । मनसावद्ययोगनिवृत्तिः जिनगुणानुरागः वन्द्यमानश्रुतादिगुणानुवृत्तिः कृतापराधविषया निन्दा, मनसा प्रत्याख्यानं, शरीरासारतानुपकारित्वभावना, चेत्यावश्यक शुद्धिरस्यां सत्यां अशुभयोगो जिनगुणाननुरागः श्रुतादिमाहात्म्येऽनादरः, अपराधाजुगुप्सा, अप्रत्याख्यानं, शरीरममता चेत्यमी भावदोषाः परिग्रहा निराकृता भवन्ति ॥ १६९ ॥ २१३ आदि दोषोंसे दूषित वसति और संस्तरका त्याग कर दिया इस प्रकार उपधित्याग होता है । उपकरण आदि की भी शुद्धि उद्गम आदि दोषोंसे रहित होना हैं । उसके होने पर उद्गम आदि दोषोंसे दूषित, असंयमके साधन और 'यह मेरा है' इस भावके मूलकारण परिग्रहों का त्याग है ही । संयमी होना और वैयावृत्यके क्रमका ज्ञाता होना वैयावृत्यकारीकी शुद्धि है । उसके होने पर असंयमी और क्रमको न जानने वाले मेरे वैयावृत्य करने वाले नहीं हैं ऐसा स्वीकार करने पर उनका त्याग होता है ॥ १६८ ॥ गा० – अथवा दर्शन शुद्धि, ज्ञान शुद्धि, चारित्र शुद्धि, विनय शुद्धि और आवश्यक शुद्धि इस प्रकार शुद्धिके पाँच भेद होते हैं || १६९ || Jain Education International 0. टी० - निःशंकित आदि गुणोंका धारण करना दर्शन शुद्धि है । उसके होने पर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि अशुभ परिणाम रूप परिग्रहोंका त्याग होता है । 'कालमें पढ़ना' आदि ज्ञान शुद्धि है । उसके होने पर अकाल पठन आदि क्रिया, जो ज्ञानावरणके बन्धकी कारण हैं, त्याग होता है । पच्चीस भावनाएँ चारित्र शुद्धि है । उसके होने पर मनकी चंचलताको न रोकना आदि अशुभ परिणाम, जो अभ्यन्तर परिग्रह हैं उनका त्याग होता है । दृष्ट फलकी अपेक्षा न करके विनय करना विनय शुद्धि है । उसके होने पर उपकरण आदिके लाभका लोभ दूर होता है । सावद्य योगका त्याग, जिन देवके गुणोंमें अनुराग, नमस्कार करनेके योग्य श्रुत आदि के गुणों का पालन करना, किये हुए अपराधकी निन्दा, मनसे प्रत्याख्यान करना, शरीरकी असारता और उसके अनुपकारीपनेका चिन्तन, ये आवश्यक शुद्धि है । उसके होने पर अशुभ योग, जिन देवके गुणों में अनुरागका अभाव, श्रुत आदिके महात्म्यमें अनादर, अपराधके प्रति ग्लानिका न होना, प्रत्याख्यानका न होना, और शरीर से ममता, ये दोष परिग्रह है, इनका निरास होता १. श्च मम-आ० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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