SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 624
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजयोदया टीका ५५७ 'वज्झो य णिज्जमाणो' हन्तुं नियमानः । 'जह पियइ' यथा सुरां पिबति । 'खावि तंबोलं' ताम्बूलं भक्षयति । तथा 'कालेण य णिज्जंता' मृत्युना नीयमाना मूढाः। 'विसए सेवंति' विषयाननुभवन्ति ॥१०५६।। वग्धपरद्धो लग्गो मूले य जहा ससप्पबिलपडिदो । पडिदमधुबिंदुचक्खणरदिओ मूलम्मि छिज्जते ॥१०५७॥ 'वग्यपरद्धो' व्याघ्रणाभिद्रुतः । 'लग्गो' लग्नः । 'मूलम्मि' लतायाः मूले । 'ससप्पविलपडिदो' ससर्पवति बिले पतितः । 'पडिदमधुबिंदुचक्खणरदिओं' स स्वसृक्वस्थानपतितमधुबिन्द्रास्वादनरतिकः । 'मूलम्मि 'छिज्जते' मूले छिद्यमाने मूपिकाभिर्यथा ॥१०५७॥ तह चेव मच्चुवग्धपरद्धो बहुदुक्खसप्पबहुलम्मि । संसारबिले पडिदो आसामूलम्मि संलग्गो ।।१०५८।। ___'तह चेव' तथैव । 'मच्चुवग्धपरद्धो' मृत्युव्याघ्रण'उपद्रुतः । 'संसारबिले पडिदो' संसार एव बिलः तस्मिन्पतितः । कीदृग्भूते ? बहुदुःखसर्पाकुले आशामूले । 'संलग्गो' सम्यग्लग्नः ।।१०५८॥ बहुविग्घमूसएहिं आशामूलम्मि तम्मि छिज्जते । लेहदि तहवि अलज्जो अप्पसुहं विसयमधुबिंदु ॥१०५९।। 'बहुविग्घमूसहिं य' बहुभिर्विघ्नमूषकः । 'आशामूलम्मि तम्मि छिज्जते' आशाख्ये मूले तस्मिंश्च्छिद्यमाने । 'लेहदि' खादति । 'विभयविलज्जो' निर्भयो निर्लज्जश्च । 'अप्पसुहं विसयमधुबिंदु' अल्पसुखं विषयमधुबिन्दुं । अल्पसुख निमित्तत्वादल्पसुखमित्युच्यते । विषयमधुबिन्दुं विषयशब्देन रूपादय इत्युच्यन्ते । तेषु पुरोऽवस्थितं पुद्गलस्कंधस्य वर्तमानाः कतिपयाः पर्याया अतिस्वल्पास्त एव मधुविन्दवः । अधुवत्तं ॥१०५९।। गा०-टी०-जैसे पीछे लगे व्याघ्रके भयसे भागता हुआ कोई मनुष्य एक ऐसे कूपमें गिरा जिसमें सर्प रहता था। उस कूपकी दीवारमें एक वृक्ष उगा था। उसकी जड़को पकड़कर वह लटक गया। उस जड़को चूहे काट रहे थे। किन्तु उस वृक्षपर मधुमक्खियोंका एक छत्ता लगा था और उसमेंसे मधकी बँद टपककर उसके ओठोंमें आती थी। वह संकट भल उसी म बिन्दुके स्वादमें आसक्त था ॥१०५७।। गा.-उसी मनुष्यकी तरह मृत्युरूपी व्याघ्रसे भीत प्राणी अनेक दुःखरूपी सोंसे भरे संसार कूपमें पड़ा है और आशारूपी जड़को पकड़े हुए है ॥१०५८।। . गा०-टो०-किन्तु उस आशारूप जड़को बहुतसे विघ्नरूपी चूहे काट रहे हैं। फिर भी वह निर्लज्ज निर्भय होकर क्षणिक सुखमें निमित्त विषयरूपी मधुकी बूंदके आस्वादमें डूबा हुआ है। यहाँ विषय शब्दसे रूप आदिको कहा है। उसके सामने वर्तमान जो पुद्गल स्कन्धकी कुछ थोड़ी-सी पर्यायें हैं वे ही मधुकी बूंद है । उसीमें वह आसक्त है ॥१०५९॥ इस प्रकार संसारकी अनित्यताका कथन किया। १. ण अभिद्रुतः-आ० मु०। २. दि विभयविल-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy