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________________ ५५८ भगवती आराधनां वालो अमेज्झलित्तो अमेज्झमज्झम्मि चेव जह रमदि । तह रमदि णरो मूंढो महिला मेज्झे सयममेज्झो || १०६०॥ 'बालो अमेज्झलित्तो' बालोऽमेध्येन लिप्तः । 'अमेज्झमज्झम्मि चेव' अमेध्यमध्ये एव । 'जह रमइ' यथा रमते प्रीतिमुपैति । 'तथा रमदि णरो मूढो' तथा रमते मूढः नरः । 'महिलामेज्झे' योषिदेव अनेकाशुचिपूर्णशरीरतया अमेध्यश द्वेनोच्यते । सयममेज्झो स्वयममेध्यभूतः ॥ १०६०॥ कुणिमरसकुणिमगंधं सेवित्ता महिलियाए कुणिमकुडी । जं होंति सोचयत्ता एवं हासावहं तेसिं ॥ १०६१॥ 'कुणिमरसकुणिमगंध' अशुचिरसमशुचिगन्धं । 'सेविता' सेवमानाः । 'महिलियाए' महिलाया युवत्याः । ' कुणिमकुडि' अशुचिशरीरकुटि । 'जं होदि सोयवत्ता' यद्भवन्ति शौचवन्तः । ' एवं हासावहं ' एतच्छोचवत्वं हास्यावहं । 'तेसि' तेषां ॥१०६१॥ एवं एदे अत्थे देहे चिंतंतयस्स पुरिसस्स । परदेहं परिभोत्तुं इच्छा कह होज्ज सघिणस्स || १०६२।। 'एवं एदे अत्थे' एवमेतानर्थान् । 'देहे' शरीरविषयान् । 'चिंतंतयस्य' चिन्तयतः । ' पुरिसस्स' पुरुषस्य । 'परदेहं परस्य शरीरं । 'परिभोत्त' परितो भोक्तुं । 'इच्छा किह होज्ज' इच्छा कथं भवेत् । 'सधिणस्स' लज्जावतः ॥ १०६२ ॥ एदे अत्थे सम्मं दोसं पिच्छंतओ णरो सघिणो । ससरीरे वि विरज्जइ किं पुण अण्णस्स देहम्मि || १०६३ || 'एदे अत्थे देहस्स बीजणिप्पत्तिखेत्त' इत्येतत्सूत्र निर्दिष्टानेतानर्थान् । 'देहे' शरीरे । 'पिच्छितगो' सम्यङ् निरूपयन् । ‘ससरीरे वि विरज्जइ' आत्मनोऽपि शरीरे विरक्ततामुपैति । 'किं पुण अण्णस्स देहम्मि' किं पुनरन्यशरीरे विरक्ततां नोपेयात् । 'अशुचि' अशुचित्वं व्याख्यातं ॥ १०६३॥ TITO- - जैसे मलसे लिप्त वालक मलमें ही रमता है वैसे ही मूढ़ मनुष्य स्वयं अत्यन्त मलिन है और मलिनता भरे स्त्रीके शरीरमें रमण करता है ||१०६०॥ गा० – युवतीका शरीर अशुचि रस और दुर्गन्धसे पूर्ण है । ऐसे अशुचि शरीरको सेवन करता हुआ कामी पुरुष अपनेको शुचि- पवित्र मानता है उसकी यह पवित्रता हास्यास्पद है ॥ १०६१ ॥ Jain Education International गा० - इस प्रकार शरीर के विषय में विचार करनेवाले पुरुषको शरीरसे ग्लानि हो जाती है तब उसे स्त्री शरीरको भोगनेकी इच्छा कैसे हो सकती है ॥ १०६२|| · गा० - शरीरका बीज, उसकी निष्पत्ति आदिको सम्यक्रूपसे निरीक्षण करनेवाला लज्जाशील मनुष्य अपने शरीरसे भी विरक्त हो जाता है तव अन्यके शरीरमें क्यों विरक्त नहीं होगा ||१०६३ || इस प्रकार शरीरकी अशुचिताका कथन हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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