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________________ भगवती आराधना रूवाणि कट्ठकम्मादियाणि चिट्ठत्ति सारवेंतस्स । घणिदं पि सारवंतस्स ठादि ण चिरं सरीरमिमं ॥१०५३॥ 'रूवाणि कट्ठकम्मादियाणि' काष्ठे उत्कीर्णानि रूपाणि स्त्रीणां पुंसां अन्येषां च आदिशब्देन शिलादन्तादिरूपपरिग्रहश्चिरं 'चिठ्ठत्ति सारवत्तस्स' चिरं तिष्ठन्ति संस्कुर्वतः । 'धणिदं पिसारवेंत्तस्स' नितरामपि संस्कुर्वतः । 'ठादि ण चिरं शरीरमिमं न तिष्ठति चिरं शरीरमिदं ॥१०५३।। न च केवलं शरीरमेव अनित्यमपि त्वन्यदपि इति व्याचष्टे मेघहिमफेणउक्कासंझाजलबुब्बुदो व मणुगाणं । इंदियजोव्वणमदिरूवतेयबलवीरियमणिच्चं ॥१०५४॥ 'मेघहिमफेणउक्कासंझाजलबुब्बुदोव' मेघवद्धिमवत्फेनवदुल्कावत्सन्ध्यावज्जल बुबुदवच्च । 'मणुयाणं' मनुजानां। 'इंदियजोव्वणमदिरूवतेजबलवीरियमणिच्चं' इन्द्रियाणि, यौवनं, मतिः, रूपं तेजो, बलं वीर्य, चानित्यं ॥१०५४॥ झटिति शरीरसम्पद्वयावर्तते इत्याख्यानकं दर्शयति साधु पडिलाहेदुगदस्स सुरयस्स अग्गमहिसीए । णटुं सदीए अंग कोढेण जहा मुहुत्तेण ॥१०५५॥ 'साधु पडिलाहेदु गदस्स' साधोराहारदानाथं गतस्य । 'सुरयस्य' सुरतनामधेयस्य राज्ञः । 'अग्गमहिसीए' अग्रमहिष्याः । 'सवीए' सत्याः शोभनायाः । 'अंगं ' शरीरं नष्ट । 'कोढेण' कुष्ठेन । 'जहा महत्तेण' यथा मुहूर्तेन ॥१०५५॥ वज्झो य णिज्जमाणो जह पियइ सुरं च खादि तंबोलं । कालेण य णिज्जतां विसए सेवंति तह मूढा ।।१०५६।। . गा०-सार सम्हाल करनेपर काष्ठ, पाषाण, हाथी दाँत आदिमें अंकित किये गये स्त्री पुरुषोंके रूप चिरकाल तक रहते हैं । किन्तु यह शरीर अति सम्हाल करनेपर भी चिरकाल तक नहीं रहता ॥१०५३॥ __ आगे कहते हैं कि केवल शरीर ही अनित्य नहीं है किन्तु वस्तुएँ भी अनित्य हैं-- गा-मनुष्योंके इन्द्रियाँ, यौवन, मति, रूप, तेज, बल और वीर्य ये सब मेघ, बर्फ, फेन, उल्का, सन्ध्या और जलके बुलबुलेकी तरह अनित्य हैं ॥१०५४॥ शरीररूप सम्पदा झट नष्ट हो जाती है यह एक कथा द्वारा कहते हैं गा०-राजा सुरत साधुको आहार देने गया। इतने में ही उसकी पटरानी सतीका शरीर एक मुहूर्तमें ही कोढ़से नष्ट हो गया ॥१०५५।। गा०-जैसे मारनेके लिए कोई किसी पुरुषको ले जाये और वह पुरुष मरनेकी चिन्ता न करके शराब पिये और पान खाये । वैसे ही मूढ़ मनुष्य मृत्युकी चिन्ता न करके विषयोंका सेवन करते हैं ।।१०५६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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