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________________ ६२८ भगवती आराधना जह कोडिल्लो अग्गि तप्पंतो व उवसमं लभदि । तह भोगे भुजंतो खणं पि णो उवसमं लभदि ।।१२४५॥ 'जह कोडिल्लो" यथा कुष्ठेनोपद्रुतः । 'अग्गि तप्पंतो' अग्निना दह्यमानमूर्तिरपि । 'णेव उबसमं लभवि' नैव व्याधरुपशमं लभते । न ह्यग्निरुपशामकः कुष्ठस्यापि तु वर्द्धकः । यद्यस्य वृद्धिनिमित्तं न तत्तदुपशमयति । यथा कुष्ठं नोपशमयति वह्निः । वर्धयति चाभिलाषं अबलादिसंगमः 'तह तथा । 'भोगे भुजंतो' भोगानुभवनोद्यतः । 'खणंपि णो उवसमं लभदि' क्षणमात्रमपि नोपशमं लभते भोगाभिलाषरोगस्य ॥१२४५॥ कच्छु कंडुयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे । दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण आदीहिं कुणाद तहा ॥१२४६॥ 'कच्छं' कच्छं । 'कंडुयमाणो' नखैमर्दयन् । 'सुहाभिमाणं करेइ' सुखाभिमानं करोति । 'जह दुक्ख' यथा दुःखे । 'तह मेहुण आदीहिं' तथा मैथुनादिदुःखै रभसालिङ्गने, अधरदशने, उरस्ताडने ननिशितैरङ्गच्छेदने कचाकर्षणे । उक्तं च नग्नः प्रेत इवाविष्टः स्वनन्निवि शवन्निव । श्वासायासपरिवान्तः स कामी रमते किल ॥१॥ इति ॥[ ] ॥१२४६।। घोसादकी य जह किमि खंतो मधरित्ति मण्णदि वराओ। तह दुक्खं वेदंतो मण्णइ सुक्खं जणो कामी ॥१२४७॥ 'घोसादकी' घोषातकीं। 'किमि' कृमिः । 'संतो' भक्षयन् । 'महा मधुरित्ति' यथा मधुरमिति मन्यते वराकः । 'तह तथैव । 'दुक्ख वेवंतो' दुःखमनुभवन् । 'मण्णदि सोक्खं जणो कामी' मन्यते कामिजनः सुखं ॥१२४७॥ इसे दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं गा०—जैसे कुष्ठ रोगसे पीड़ित व्यक्तिका शरीर आगमें जलने पर भी कुष्ठ रोग शान्त नहीं होता; क्योंकि आग कुष्ठ रोगको शान्त नहीं करती, बल्कि बढ़ाती है। और जो जिसको बढ़ाता है वह उसको शान्त नहीं कर सकता। जैसे आग कुष्ठ रोगको शान्त नहीं करती। उसी प्रकार स्त्रीका संगम स्त्री विषयक अभिलाषाको बढ़ाता है। अतः जो भोगोंके भोगनेमें तत्पर है उसका भोगकी अभिलाषा रूप रोग एक क्षणके लिए भी शान्त नहीं होता ॥१२४५।। गा० टी०-जैसे खाजको नखोंसे खुजाने वाला दुःखको सुख मानता है। उसी प्रकार मथुनके समय वेगपूर्वक आलिंगन, ओष्ठ काटना, छाती मसलना, तीक्ष्ण नखोंसे शरीर नोंचना, केश खीचना आदिसे होने वाले दुःखको कामी सुख मानता है। कहा भी है-कामी पुरुष पिशाचसे ग्रहीत पुरुषकी तरह नग्न होकर स्त्रीके साथ रमण करता है और श्वास तथा थकानसे पीड़ित होकर शब्द करते हुए श्वास लेता है ॥१२४६।। गा०-जैसे बेचारा कीट घोषा नामक लताको खाते हुए उसे मीठी मानता है उसी प्रकार कामी जन दुःखका अनुभव करते हुए उसे सुख मानता है ।।१२४७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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