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________________ ५९२ भगवती आराधना जनं सम्पादयन्तीति महाव्रतानि । 'आयरिदाईच जं महल्लेहि यस्मादाचरितानि महद्धिः तस्मान्महाव्रतानि इति निरुक्तिः । 'जं च' यस्मात् 'महल्लाणि' स्वयं महान्ति ततो महाव्रतानि स्थूलसूक्ष्मभेदसकलहिंसादिविरूपतया वा महान्ति ॥११७८।। तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती । अट्टप्पवयणमादाओ भावणाओ य सव्वाओ ।। ११७९।। 'तेसिं चेव वदाणं' तेषामेवाहिंसादिव्रतानां । 'रक्खत्थं रक्षणार्थ । 'रादिभोयणणियत्ती' रात्रिभोजनान्निवृत्तिः । रात्री यदि भिक्षार्थं पर्यटति त्रसान्स्थावरांश्च हन्यादुरालोकत्वात् । न च दायकागमनमार्ग, तस्यान्नावस्थानदेशं, आत्मनो वा उच्छिष्टस्य वा निपातदेशं, दीयमानं वाहारं योग्यं न वेति विरूपयितुमयं कथं समर्थः ? दिवापि दुःपरिहारान् जानाति रससूक्ष्मानयं कथं परिहरेत् । 'कडुन्छुगं करं वा' दायिकायाः भाजनं वा कथं शोधयति । पदविभागिका वा एषणासमित्यालोचनां सम्यगपरीक्षितविषयां कुर्वतः कथमिव । सत्यव्रतमवतिष्ठते ? सुप्तेन स्वामिभतेनादत्तमप्याहारं गलतोऽदत्तादानं स्यात । क्वचिदभाजने दिवैव स्थापितं, आत्मवासे भुजानस्यापरिग्रहवतलोपः स्यात् । रात्रिभोजनात्त व्यावत्तेः सकलानि व्रतान्यवतिष्ठन्ते सम्पूर्णानि । 'अठ्ठप्पवयणमावाओ' अष्टौ प्रवचनमातृकाश्च सव्रतपरिपालनायां । एवं पञ्च समितयः तिस्रो प्रयोजनको साधते हैं, इसलिए महाव्रत हैं । यतः महान् पुरुषोंके द्वारा इनका आचरण किया जाता है इसलिए महाव्रत हैं। और यतः ये स्वयं महान् हैं-स्थल और सूक्ष्मके भेद रूप हिंसा आदिका इससे त्याग होता है अतः इन्हें महाव्रत कहते हैं ।।११७८।। विशेषार्थ-अहिंसा आदि महाव्रत हिंसा आदिसे विरतिरूप होनेसे शुद्ध चिद्रूप हैं । नोआगमभाव व्रतकी अपेक्षा चारित्रमोहके क्षयोपशम उपशम अथवा क्षयसे जीवके हिंसादि निवृत्ति रूप रिणाम-मैं जीवन पर्यन्त हिंसा नहीं करूँगा, असत्य नहीं बोलंगा, विना दी हई वस्तु ग्रहण नहीं करूँगा, मैथन नहीं करूँगा और न परिग्रह स्वीकार करूंगा. महावत हैं ॥११७८।। गा०-टी०-उन्हीं अहिंसा आदि व्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रि भोजनका त्याग कहा है। यदि मुनि रात्रिमें भिक्षाके लिए भ्रमण करता है तो त्रस और स्थावर जीवोंका घात करता है क्योंकि रात्रिमें उनको देख सकना कठिन है । देनेवालेके आनेका मार्ग, उसके अन्न रखनेका स्थान, अपने उच्छिष्ट भोजनके गिरनेका स्थान, दिया जानेवाला आहार योग्य है अथवा नहीं, ये सब वह कैसे देख सकता है ? दिनमें भी जिनका परिहार कठिन है उन रसज अतिसूक्ष्म जीवोंका परिहार रात्रिमें कैसे कर सकता है। करछल, अथवा देनेवालीका हाथ अथवा पात्रको देखे विना कैसे शोधन कर सकता है। इन सबकी सम्यक्रूपसे परीक्षा किये विना पदविभागी अथवा एषणा समिति आलोचना करनेपर साधुका सत्यव्रत कैसे रह सकता है ? दानका स्वामी सोया हुआ हो और उसके द्वारा न दिये गये आहारको किसी अन्यके हाथसे लेनेपर अदत्तादान-विना दी हुई वस्तुका ग्रहण कहलायेगा। किसी भाजनमे दिनमें लाकर रखे और रात्रिमें भोजन करे तो अपरिग्रहवतका लोप होगा। किन्तु रात्रि भोजनका त्याग करनेसे सब व्रत सम्पूर्ण रहते हैं । आठ प्रवचन माता महाव्रतकी रक्षक हैं। पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ ये आठ १. श्रुतेन अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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