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________________ विजयोदया टोका ५९३ गुप्तयश्च प्रवचनमातृकाः । रत्नत्रयं प्रवचनं तस्य मातर इवेमाः । क उपमार्थः? यथा माता पुत्राणां अपायपरिपालनोद्यता एवं गुप्तिसमितयोऽपि व्रतानि पालयन्ति । 'भावणाओ य सम्वाओ' भावनाश्च सर्वाः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमचारित्रमोहोपशमक्षयोपशमापेक्षेणात्मना भाव्यतेऽसकृत्प्रवर्त्यते इति भावना। अथ किमिदं व्रतं नाम ? यावज्जीवं न हिनस्मि, नानृतं वदामि, नादत्तमाददे, न मिथुनकर्म करोमि, न परिग्रहमाददे । इत्येवंभूत आत्मपरिणाम उत्पन्नः कथंचित्तथैव अवतिष्ठते उत विनश्यति वा ? अवस्थानमनुभवविरुद्धं । जीवादितत्त्वपरिज्ञाने तस्य श्रद्धाने वा प्रवृत्तस्य इत्थमुपयोगाभावात् । अथ विनश्यति ? परिणामान्तरोत्पत्ती असति का रक्षा ? सतो झपायपरिहारो रक्षा ततः किमुच्यते व्रतानां रक्षाय रात्रिभोजनविरतिरिति । यदा न हिनस्मीत्युपयोगो न तदा नानृतं वदामीत्येवमादयः सन्ति परिणामाः । किं पुनः परिणामान्तरे वाच्यम् । अत्रोच्यते नामादिविकल्पेन चतुर्विधानि व्रतानि । तत्र नामव्रतं कस्यचिद्वतमिति कृता संज्ञा । हिंसा दिनिवृत्तिपरिणामवत आत्मनः शरीरस्य बन्धं प्रत्येकत्वात् आकारः सामायिके परिणतस्य सद्भावस्थापनावतं । भाविव्रतत्वग्राहिज्ञानपरिणतिरात्मा आगमद्रव्यवतं। व्रतज्ञस्य शरीरं त्रिकालगोचरं, ज्ञायकशरीरं व्रतं । चारित्रमोहस्य उपशमात् क्षयात्क्षयोपशमाद्वा यस्मिन्नात्मनि भविष्यन्ति विरतिपरिणामाः स भाविव्रतं । उपशमे क्षयोपशमे वावस्थितः चारित्रमोहो नो आगमद्रव्यव्यतिरिक्तं कर्म व्रतं । न हिनस्मीत्यादिको ज्ञानोपयोगो वव्रतमिति । नो आगमभावव्रतं नाम चारित्रमोहोपशमात क्षयोपशमात क्षयादा प्रवत्तो हिंसादि प्रवचन माता हैं । रत्नत्रयरूप प्रवचनकी ये माताके समान हैं। जैसे माता पुत्रोंकी रक्षा करती है वैसे ही गुप्ति और समितियां व्रतोंकी रक्षा करती हैं। तथा सब भावनाएं महाव्रतोंकी रक्षक हैं । वीर्यान्तरायका क्षयोपशम और चारित्रमोहके उपशम अथवा क्षयोपशमकी अपेक्षा जो आत्माके द्वारा भाई जाती हैं बारबार की जाती हैं वे भावना हैं । शङ्का-मैं जीवन पर्यन्त हिंसा नहीं करूंगा, झूठ नहीं बोलूंगा, विना दी हुई वस्तु ग्रहण नहीं करूँगा, मैथुन कर्म नहीं करूँगा, न परिग्रह रखू गा, इस प्रकारका परिणाम उत्पन्न होने पर. क्या ऐसा ही बना रहता है. या नष्ट हो जाता है ? वैसा ही बना रहना तो अनुभव विरुद्ध है क्योंकि जीवादि तत्त्वोंको जानने में अथवा उनके श्रद्धानमें प्रवृत्ति करने पर इस प्रकारका उपयोग नहीं रहता। यदि नष्ट हो जाता है तो जब अन्य परिणाम उत्पन्न हुए और महाव्रत रूप परिणाम नहीं रहे तब उनकी रक्षा कैसी ? जो विद्यमान होता है उसको विनाशसे बचाना रक्षा है। तब यह कैसे कहा कि व्रतोंकी रक्षाके लिए रात्रि भोजन विरति होती है। जिस समय 'मैं हिंसा नहीं करता' ऐसा उपयोग होता है उस समय 'मैं झूठ नहीं बोलता' इत्यादि परिणाम नहीं होते। तब अन्य परिणामोंके होने पर तो महाव्रत रूप परिणाम कैसे रह सकते हैं ? समाधान-नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे व्रतके चार भेद हैं । किसीका नाम व्रत होना नामव्रत है। आत्मा और शरीर पारस्परिक सम्बन्धकी दृष्टिसे एक हैं अतः हिंसा आदिसे निवृत्ति रूप परिणाम वाला आत्मा जब सामायिकमें लीन होता है तब उसका आकार सद्भाव स्थापना व्रत है । भविष्यमें व्रतको ग्रहण करने वाले ज्ञान रूपसे परिणत आत्मा आगम द्रव्य व्रत है। व्रतके ज्ञाताका त्रिकाल गोचर शरीर ज्ञायक शरीर व्रत है। चारित्र मोहके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जिस आत्मामें आगे व्रत होंगे वह आत्मा भाविव्रत है। उपशम अथवा क्षयोपशम रूप परिणत चारित्रमोह कर्म नोआगम द्रव्य व्यतिरिक्त कर्म व्रत है। 'मैं हिंसा नहीं करता' इत्यादि । रूप ज्ञानोपयोग आगमभाव व्रत है। चारित्र मोहके उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे होने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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