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________________ ५९४ भगवती आराधना परिणामाभावः अहिंसादिवतं । प्राणिनां वियोजने प्राणानां, असदभिधाने, अदत्तस्यादाने, मिथुनकर्मविशेषे, मूर्छायां वाऽपरिणतिरिति यावत् । तथा चोक्तं-"हिंसानूस्ततेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतमिति' [त०सू० ७।१] हिंसादयः क्रियाविशेषा आत्मनः परिणामास्तेभ्यो आत्मनो व्यावृत्तिहिंसादिष्वपरिणतिव्रतमिति सूत्रार्थः। हिंसादिव्यावृत्तत्वं नाम यदुपं जीवस्य व्रतसंज्ञितं तत्परिपाल्यते रात्रिभोजननिवृत्त्या प्रवचनमातकाभिश्च । यस्मिन्वाऽसति तद्विनश्यति सति च न विनश्यति तत्तत्पालयति यथा दुर्गो राजानं । सत्यां रात्रिभोजननिवृत्तौ प्रवचनमातृकासु भावनासु वा सतीषु हिंसादिव्यावृत्तत्वं भवति, न तास्वसतीषु इति युक्तमुक्तं सूत्रकारेण ॥११७९॥ तेसिं पंचण्हं पि य अंहयाणमावज्जणं व संका वा । आदविवत्ती य हवे रादीभत्तप्पसंगम्मि ॥११८०॥ 'तेसि पंचण्डं पिय अंहयाणमावज्जणं' तेषां पञ्चानां हिंसादीनां प्राप्तिः । 'संका वा' शङा वाम हिंसादयः किं संवृत्ता न वेति । 'हवे' भवेत् । 'रादोभत्तप्पसंगम्मि' रात्रावाहाराप्रसंगे सति न केवलं हिंसादिषु परिणतिः । 'विवत्ती य हविज्ज' आत्मनश्च यतेः स्वस्यापि विपद्भवेत् स्थाणुसर्पकण्टकादिभिः ॥११८०॥ हिंसादि परिणामोंका अभाव रूप अहिंसादि व्रत नोआगमभाव व्रत है। इसका मतलब है प्राणियों के प्राणोंके धातमें, झूठ बोलनेमें, विना दी हुई वस्तुके ग्रहणमें, मैथुन रूप विशेष कर्ममें तथा ममत्व भावमें परिणतिका न होना। तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा भी है-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे विरति व्रत है।' हिंसा आदि क्रिया विशेष आत्माके परिणाम हैं। उनसे आत्माकी निवृत्ति अर्थात् हिंसादि रूप परिणतिका न होना व्रत है। यह सूत्रका अर्थ है। जीवकी हिंसा आदिसे व्यावृत्ति रूप जो अवस्था है उसका नाम व्रत है। रात्रि भोजन त्याग और प्रवचन माताओंके द्वारा जीवके उस रूपका संरक्षण होता है। जिसके नहीं होने पर जो नष्ट हो जाता है और जिसके होने पर जो नष्ट नहीं होता वह उसका रक्षक होता है। जैसे दुर्ग राजाका रक्षक है। रात्रि भोजनसे निवृत्ति और प्रवचन माता तथा भावनाओंके होने पर हिंसादिसे निवृत्ति होती है और उनके नहीं होने पर नहीं होती है । अतः गाथा सूत्रकारने ठीक ही कहा है कि ये व्रतोंकी रक्षक हैं । आशय यह है कि जीवन पर्यन्त हिंसा आदिसे निवृत्ति रूप परिणत आत्माका कथंचित् उसी रूपसे बने रहना ही यहाँ विवक्षित है । परिणामोंमें परिवर्तन होते हुए भी निवृत्ति रूप परिणाम तदवस्थ रहता है ।।११७९|| - गा०-रात्रिमें आहार करने पर उन हिंसा आदि पांचों पापोंकी प्राप्ति होती है अथवा यह शंका रहती है कि हिंसा आदि पाप हुए तो नहीं ? इसके सिवाय साधुको स्वयं भी ढूंठ, सर्प, कण्टक आदिसे विपत्तिका सामना करना पड़ सकता है ।।११८०॥ १. इस गाथाके पश्चात् मुद्रित प्रतिमें नीचे लिखी गाथा है जिसपर आशाधरकी टीका है किन्तु यह किसी प्रतिमें नहीं है। पं० जिनदासजी ने भी न तो इसका अर्थ किया है और न इसपर पृथक् क्रमांक दिया है अण्हयदारोपरमणदरस्स गत्तीओ होन्ति तिण्णव । चेट्ठिदुकामस्स पुणो समिदीओ पंच दिट्ठाओ ॥ आस्रवके द्वारको रोकने में आसक्त भिक्षुके तीन गुप्तियां होती हैं। और गमन तथा बोलने आदिकी चेष्टा करने पर पांच समितियाँ कही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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