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________________ ८०० भगवती आराधना होउण महड्डीओ देवो सुभवण्णगंधरूवघरो। । । कुणिमम्मि वसदि गम्भे धिगत्थु संसारवासस्स ।।१७९७।। 'होऊण महड्ढीओ देवो' महद्धिको देवो भूत्वा । 'सुभवण्णगंधरूवधरों' प्रशस्ततेजोगन्धरूपान्वितः । इन्द्रचापतडिदम्बुधराणां यदाशु गंगने सहसैव । जन्म संभवति तद्वदमीषां जन्म वेद्यमशुचिप्रविमुक्तम् ॥ वातपित्तकफजैः परिमुक्तं ध्याधिभिविगतखेदमनिद्रम् । अच्युतं परमयौवनयुक्तं सर्वतोऽविकलमुत्तमकान्ति ॥ सर्वतश्च विमलाम्बरवर्णस्पर्शगन्धवरवामितहासं ।। सद्विलासगतिचेष्टित'लील ते शरीरमरमत्र लभन्ते ॥...', गीतवाद्यततितूर्यनिनादेस्तांस्तदाथ समपेत्य सहर्षाः । देवदेव वनिताः प्रणिपत्य कुर्वतेऽत्र समपासनमेषां ॥ फुल्लपङ्कजसमैरथ हस्तैदक्षिणः प्रवरलक्षणकोणः । चारचन्द्रवदना नतिमेषां स्निग्षदृष्टिहसिताः प्रतिगृह्य ॥ मृगपासनमस्तकोपविष्टान् मृगपानप्रगतानिवाचलानां । अय तानभिषेकमापयंति मुदितास्तत्र सुराः सुवर्णकुम्भः ।। "प्रविकाशय वक्त्रपङ्कजानि सुरनाथार्कगुणांशुभिः सुराणां । कुरुमः सुचिरं त्वमाधिपत्यमिति तान्वाग्भिरभिष्टुवन्ति व ॥ . गा०-टी---शुभरूप, शुभगन्ध, और प्रशस्त तेजधारी महती ऋद्धिका धारक देव भी होकर गन्दे गर्भस्थानमें वास करता है। देवोंमें उत्पत्तिका वर्णन करते हुए कहा है जैसे आकाशमें सहसा ही शीघ्रतासे इन्द्रधनुष, विजली और मेघ प्रकट होते है उसी प्रकार देवोंका जन्म होता है। उनका शरीर अपवित्र वस्तुओंसे रहित होता है, वात, पित्त और कफसे उत्पन्न होनेवाले रोगोंसे रहित होता है। खेद और नींदले. रहित होता है। उत्कृष्ट यौवनसे युक्त होता है, सब रूपसे परिपूर्ण होता है, उत्तम कान्तिसे युक्त होता है। उत्तम रूप, रस गन्धसे युक्त है। वचन-विलास, हास-विलास, गति चेष्टासे लीला सहित होता है। वे देव ऐसा शरीर तत्काल प्राप्त कर लेते हैं। उसके पश्चात् गीत वाद्योंकी पंक्ति तथा भेरोक शब्दोंके साथ देव-देवांगना बड़े हर्षके साथ उनके पास जा, नमस्कार करके उनकी सेवा करते हैं। हास सहित स्निग्ध दृष्टिसे युक्त सुन्दर चन्द्रमुखी देवांगनाएं खिले हुए कमलके समान तथा उत्तम लक्षणोंसे युक्त दक्षिण हाथोंसे उनका नमस्कार स्वीकार करती हैं। पर्वतोंके अग्रभाग पर बैठे हुए सिंहके समान सिंहासनके मस्तक पर बैठे हुए उन देवोंका वे देव प्रसन्नतापूर्वक सुवर्ण कलशोंसे अभिषेक करते हैं। हे देवेन्द्ररूपी सूर्य ! अपने गुणरूपी किरणोंसे देवोंके मुखरूपी कमलोंको विकसित करो और चिरकाल तक हमारे स्वामी रहो, इस १. शीलां आ० । २. दिव्यव -आ० । ३. तत्र सुवर्णरत्नकु -आ० । ४. कुरुत -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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