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________________ विजयोदया टीका धनदेवस्य तस्मिन्नेव भवे । भवान्तरेषु संबन्धान्यथाभावे किमस्ति वाच्यं ? उक्तं च यद्येकदेहवहने लभतेऽपवादं दुःखं ततो व्यथनमुग्रबलं च पापम् । नानाशरीरवहनेषु कथं न दुःखं प्राप्नोति को न विषयाजितपापकर्मा | कुर्यान्न तन्मदगजोद्धतवत्तवेगः खड्गों विकृष्टबलपाणिविसृष्टधारः । कुर्वन्ति दुःखमधिकं विषया नराणां, तस्मात्त्यजन्ति विषयान् परिदृष्टतत्वाः ॥ एवमयं कष्टो लोकधर्मः ॥ १७९४ ॥ या वि होइ दासो दासो रायत्तणं पुणमुवेदि । इसंसारे परिवते ठाणाणि सव्वाणि ॥ १७९५ ।। 'राया वि होइ दासो' राजा दासो भवति, नीचगत्रार्जनात्, दासो राजतां पुनरुपैति उच्चैर्गोत्रकर्मण उदयात् । एवं संसारे परिवर्तन्ते सर्वाणि स्थानानि ॥ १७९५ ॥ कुलरूवतेयभोगाधिगो वि राया विदेहदेसवदी । वच्चघरम्मि सुभोगो जाओ कीडो सकम्मेहिं ।। १७९६ ।। 'कुलरुवतेय भोगाधिगो वि' कुलेन रूपेण तेजसा भोगेनाधिकोऽपि । विदेहजनपदाधिपती राजा सुभोगसंज्ञः सुवर्चोगृहे कीटो जातः स्वैः कर्मभिः प्रेरितः । उक्तं च ७९९ वृष्टाः क्वचित्सुरमनुष्यगणप्रधानाः सर्वद्धदीप्तवपुषः शशिकान्तरूपाः । भ्रष्टास्तएव पुनरन्य मत प्रणुन्ना दीना भवन्ति कुलरूपधनप्रतापैः ॥ १७९६॥ Jain Education International यदि एक शरीर धारण करनेपर जीव अनेक अपवादों और दुःखोंको पाता है और उससे मनोवेदना और उग्र पापको बांधता है तब विषय सेवनके द्वारा पापकर्मका उपार्जन करनेवाला कौन पुरुष नाना शरीर धारण करनेपर कैसे दुःख नहीं पाता है अर्थात् अवश्य दुःख पाता है ! मदसे मत्त हाथीके द्वारा वेगपूर्वक किया गया प्रहार तथा बलशाली हाथसे छोड़ी गयी तीक्ष्ण तलवार दुःख नहीं देते। उससे भी अधिक दुःख विषय देते हैं । इसलिये तत्त्वज्ञानी जन विषयोंको त्याग देते हैं । इस प्रकार यह लोकधर्मं दुःखदायक है ॥ १७९४ ॥ गा०-नीच गोत्रका बन्ध करनेसे राजा मरकर दास होता है और उच्च गोत्रका बन्ध करनेसे दास राजा हो जाता है । इस प्रकार संसार में सब स्थान परिवर्तनशील हैं || १७९५ ॥ गा०- - विदेह देशका राजा सुभोग कुल, रूप, तेज और भोग में अधिक होते हुए भी अपने कर्मोंसे प्रेरित होकर विष्टाघरमें कीट हुआ, कहा भी है- जो देव और मनुष्योंमें प्रधान थे, जिनका शरीर सब ऋद्धियोंसे दीप्तिमान था, जिनका रूप चन्द्रमाकी तरह मनोहर था, वे भी अन्य गति में कुल, रूप, धन और प्रतापसे भ्रष्ट होकर दीन होते हैं ॥ १७९६ ॥ १. केन अ० मु० । २ न्यगतिप्रणु -आ० । -गति प्रपन्ना - मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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