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________________ विजयोदया टीका आदाय नैदाघरवि शिरःसु न्यस्तैरिवर्तेमकुटानि भूत्वा । विभूषिताश्चाभरणैरनहाराघहारांगदकुण्डलाद्यैः ॥ ज्योतिविभूषान् गगनप्रदेशान्, विद्युद्विनद्धान् रुचिराम्बुदांश्च । रत्नाचितान् हेममहागिरीश्च विशेषयन्तोऽभ्यधिकं विभान्ति ॥ विव्यवीर्यबलविक्रमायुषो दिव्यदीप्तवपुषो विशो वश । भासयंति विमलांब राकवद्दिव्यसौम्यवपुषः शशाङ्कवत् ॥ .. दूरमप्यतिपतन्ति लाघवात् गौरवाद गिरिसमा भवन्ति च । आणवादतिविशन्ति मेदिनी पार्थिवाच्च महतोऽपि रुन्धते।' काष्ठमग्निमनिलं जलं महीं संप्रविश्य च तनः शरीरिणा। निविशेषगुण काः सहासितुं ते भवन्ति सुचिरं सुशक्तयः ।। पावकाचलमुरन् वनावनीसागसंश्च सहसा निपत्य ते । स्थानमीप्सिततम श्रमाविना यान्ति चाप्रतिह'ता:समीरवत् । उत्क्षिपेयुरवनी "महाबलात् पातयेयुरपि मन्दरान्करैः। मन्दराग्रशिखरं धरास्थितास्ते स्पशेयरपि यद्यभीप्सितं ॥ ईशितु सुरनृणामयत्नतः कर्तुमात्मवशगान्मगानपि। .. रूपमात्ममनसां समीप्सितं 'स्रष्टुभग्यलममी "सहस्रधा ॥ .. प्रकार वे देव अपने वचनोंसे उनकी स्तुति करते हैं। उनके मस्तक पर मुकुट शोभित होते हैं जो मानों ग्रीष्म कालके सूर्यको ही पकड़ कर सिरों पर रख लिया है. ऐसे प्रतीत होते हैं। उन मुकुटोंसे तथा हार, अर्द्धहार, बाजूबन्द, कुण्डल आदि बहुमूल्य आभरणोंसे भूषित होकर वे देव सूर्यचन्द्रसे सुशोभित आकाशसे, बिजलीसे सम्बद्ध सुन्दर मेघोंसे और रत्नोंसे खचित स्वर्णमयी पर्वतोंसे भी अधिक सुशोभित होते हैं। दिव्य वीर्य, बल, विक्रम और आयुवाले तथा दिव्य चमकदार शरीरवाले वे देव निर्मल आकाशमें स्थित सर्य और दिव्य सौम्य शरीरवाले चन्द्रमाकी तरह दसो दिशाओंको प्रकाशित करते हैं। वे लाघवसे सुदूर तक ऊपर उठे हुए हैं और गौरवसे पर्वतके समान होते हैं। सूक्ष्म होनेसे पृथिवीमें प्रवेश करते हैं और महान् होनेसे बड़ों-बड़ोंको रोकते हैं। अर्थात् अणिमा, महिमा, लघिमा और गरिमा सिद्धिके धारी होते हैं। वे काष्ठ, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वीमें तथा प्राणियोंके शरीरमें प्रवेश करके उन्हींके समान हो जाते हैं। ऐसी उनमें शक्ति होती है। वे आग, पर्वत, पृथ्वी और सागरमें, सहसा प्रवेश करके श्रमके बिना बेरोक-टोक वायुकी तरह इच्छित स्थानको चले जाते हैं। वे महान् बलसे पृथ्वीको ऊपर उठा सकते हैं। अपने हाथोंसे मन्दराचलको गिरा सकते हैं। वे पृथ्बी पर रहकर यदि चाहें तो सुमेरुकी चोटीके अग्रभागको छू सकते हैं अर्थात् प्राप्ति और प्राकाम्य सिद्धिसे सम्पन्न होते हैं। . वे बिना प्रयत्नके देवों और मनुष्योंका स्वामित्व कर सकते हैं। मृगोंको भी अपने वश में कर सकते हैं और हजारों इच्छित रूप बना सकते हैं। अर्थात् ईशित्व और वशित्व सिद्धिसे सम्पन्न होते हैं। अपनी सुगन्धसे और मिष्ट वचनोंसे दिशाओंको पूरिता करके सन्तान आदिके १. तोऽत्यधि -आ० । २ बराः क्वचिद्दि -आ० । ३. ति विभवात् सु-आ० । ४. तां शरीर-अ० । ५. महाचलात् -अ० मु०। ६. स्पष्टुम --अ० । .9; सहस्तवाः -आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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