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भगवती आराधना उनकी टीकाके अवलोकनसे यह स्पष्ट है कि टीका लिखते समय उनके सामने इस ग्रन्थकी एकसे अधिक टीकायें वर्तमान थीं। प्रथम गाथाकी टीकाका प्रारम्भ ही 'अत्रान्ये कथयन्ति' से होता है। इसीमें कहा है 'इति भाष्यपरिहारौ केषांचित् ।' और इन भाष्य और उसके परिहार दोनोंको ही टीकाकारने अनुचित कहा है।
इसी तरह दूसरी गाथाकी टीकामें भी 'अत्रान्ये व्माचक्षते' आता है। तीसरी गाथाको टीकामें आता है-'अस्य सूत्रस्योपोद्धातमेवमपरे वर्णयन्ति ।' चौथी गाथाकी टीकामें आता है-'अत्रापरे सम्बन्धमारम्भयन्ति गाथायाः ।' 'अत्रापरा व्याख्या',
इस अपर व्याख्याकी परीक्षा करते हुए कहा है कि यदि ऐसा मानेंगे तो–'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसइं" इसके साथ विरोध आता है।
यह उल्लेखनीय है कि यह आचार्य कुन्दकुन्दकी प्रसिद्ध गाथाका पूर्वार्द्ध है जो समयसार (४९) और प्रवचनसारमें (२६८०) भी आई है। प्रथम गाथाकी टीकामें भी टीकाकारने उदाहरणरूपमें कुन्दकुन्दके प्रवचनसारकी आद्य दो गाथा तथा पञ्चास्तिकायकी मंगल गाथाका पूर्वार्द्ध उद्धृत किया है। उससे पूर्वमें सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रकी मंगलगाथाका पूर्वाद्ध उद्धृत किया है।
गाथा ११ की टीकामें समन्तभद्रके स्व० स्तो० का एक श्लोक उद्धृत है। इन्हीं तीन प्राचीन और प्रमुख जैनाचार्योंके उद्धरण ही पहचाननेमें आते हैं। इनके सिवाय पृ० ३०९ पर एक वरांगचरितका पद्य उद्धृत है और पृ० ३४७ पर शृङ्गार शतकका एक पद्य उद्धृत है।
तथा तत्त्वार्थसूत्रसे अनेक सूत्र उद्धत है। विद्वान् जानते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं एक दिगम्बर सम्मत है, दूसरा श्वेताम्बर सम्मत । जितने सूत्र उद्धृत हैं वे दिगम्बरसम्मत हैं। किन्तु गाथा १८२८ को टोकामें सातावेदनीय, सम्यक्त्वप्रकृति, रति, हास्य और पुंवेदको पुण्य प्रकृति कहा है। श्वेताम्बर सम्मत सूत्रपाठमें आठवें अध्यायके अन्तमें इसी प्रकारका सूत्र हैं । किन्तु दिगम्बर परम्परामें घातिकर्मोकी प्रकृतियोंको पाप प्रकृतियोंमें ही गिनाया है। यहाँ टीकाकारने उस सूत्रको तो प्रमाणरूपसे उद्धृत नहीं किया है किन्तु कथन तदनुसार किया है। पं० आशाधरजीने भी अपनी टीकामें विजयोदयाके अनुसार ही इन्हें पुण्य प्रकृति लिखा है, यह आश्चर्य ही है। तत्त्वार्थसुत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धि टीकाकारके सामने थी यह निर्विवाद है।
सर्वार्थसिद्धिमें चारित्रका लक्षण प्रथम सूत्रकी टीकामें
'संसारकारणनिवृति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमश्चारित्रम्' किया है। विजयोदयामें गा० ६ की टीकामें लिखा है-यथाचाभ्यधायि 'कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमो ज्ञानवतश्चारित्रम् ।।
अन्य भी स्थलोंमें चारित्रका यही लक्षण टीकाकारने दिया है।
गाथा १७६७ में भवसंसारका कथन है। इसकी टीकामें टीकाकारने 'अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवं वदन्ति' लिखकर सर्वार्थसिद्धि (२-१०) में कहे गये भवपरिवर्तनका स्वरूप उन्हीं शब्दोंमें कहा है।
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