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________________ विजयोदया टीका १४५ अथ अर्थशब्देन किमुच्यते ? व्यंजनशब्दस्य सांनिध्यादर्थशब्दः शब्दाभिधेये वर्तते, तेन सूत्रार्थोऽर्थ इति गृह्यते । तस्य का शुद्धिः ? 'प्रविपरीतरूपेण सूत्रार्थनिरूपणायां अर्थाधारत्वान्निरूपणाया अवैपरीत्यस्य अर्थशुद्धिरित्युच्यते । सूत्रार्थनिरूपणायाः शब्दश्रुतत्वादविपरीतनिरूपणापि व्यंजनशुद्धिरेव भवतीति नार्थशुद्धिः कदाचिदिति चेत्, न परकृतं शब्दश्रुता विपरीतपाठे। व्यंजनशुद्धिस्तदर्थनिरूपणाया अवैपरीत्यं अर्थशुद्धिः । प्रत्ययश्रुते तु अर्थयाथात्म्यप्रतिभासोऽर्थशुद्धिः ॥ तदुभयशुद्धिर्नाम तस्य व्यंजनस्य अर्थस्य च शुद्धिः । ननु व्यंजनार्थशुद्धयोः प्रतिपादितयोः तदुभयशुद्धिहीता न तद्वयतिरेकेण तदुभयशुद्धिर्नामास्ति ततः कथमष्टविधता ? अत्रोच्यते-पुरुषभेदापेक्षयेयं निरूपणा कश्चिदविपरीतं सूत्रार्थ व्याचष्टे सूत्रं तु विपरीतं पठति । तत्तथा न कार्यमिति व्यंजनशुद्धिरुक्ता। अन्यस्तु सूत्रमविपरीतं पठन्नपि निरूपयत्यन्यथा सूत्रार्थ इति तन्निराकृतयेऽर्थशुद्धिरुदाहृता । अपरस्तु सूत्रं विपरीतमधीते सूत्राथं च कथयित्कामो विपरीतं व्याचष्टे तदुभयापाकृतये उभयशुद्धिरुपन्यस्ता । अयमष्टप्रकारो ज्ञानाभासपरिकरोऽष्ट विधं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्दवाच्यो भवतीति सूरेरभिप्रायः ।।२१२।। व्यंजन शब्दकी समीपतासे अर्थशब्द शब्दके वाच्यको कहता है अतः अर्थसे सूत्रार्थका ग्रहण होता है। अविपरीत रूपसे सूत्रके अर्थकी निरूपणामें निरूपणाका आधार अर्थ होता है। अतः निरूपणाकी अविपरीतताको अर्थ शुद्धि कहते हैं अर्थात् सूत्रके अर्थका यथार्थ कथन अर्थ शुद्धि है। शंका-सूत्रके अर्थकी निरूपणा शब्दश्रुत रूप होती है अतः अविपरीत निरूपणा भी व्यंजन शुद्धि ही हुई, अर्थ शुद्धि कभी भी नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि दूसरेके द्वारा किया गया शब्दश्रुतका अविपरीत पाठ व्यंजन शुद्धि है। और उसके अर्थका अविपरीत निरूपण अर्थ शुद्धि है। किन्तु ज्ञानरूप श्रु तमें अर्थका ठीक-ठीक ज्ञान अर्थ शुद्धि है । व्यंजन और अर्थकी शुद्धिको तदुभय शुद्धि कहते हैं। शंका-व्यंजन शुद्धि और अर्थशुद्धिके कहनेपर तदुभय शुद्धि आ जाती है क्योंकि उन दोनों शुद्धियोंके विना तदुभय शुद्धि नहीं होती। तब आठ भेद कैसे रहे ? । समाधान-यह निरूपणा पुरुष भेदकी अपेक्षासे है। कोई व्यक्ति सूत्रका अर्थ तो ठीक कहता है किन्तु सूत्रको विपरीत पढ़ता है । ऐसा नहीं करना चाहिये इसके लिए व्यंजन शुद्धि कही है। दूसरा व्यक्ति सूत्र तो ठीक पढ़ता है किन्तु सूत्रका अर्थ अन्यथा कहता है उसके निराकरणके लिये अर्थ शुद्धि कही। तीसरा व्यक्ति सूत्रको ठीक नहीं पढ़ता और सूत्रका अर्थ भी विपरीत करता है। इन दोनोंको दूर करने के लिये उभय शद्धि कही है। यह आठ प्रकारका ज्ञानाभ्यासका परिकर आठ प्रकारके कर्मोंका विनयन करता है उन्हें दूर करता है इसलिये उसे विनय शब्दसे कहते है यह आचार्यका अभिप्राय है ॥११२॥ १. कस्य मां-आ० मु०। २. विपरीत-आ० मु०। ३. श्रुतवि०-२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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