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________________ ३१२ भगवती आराधना निर्यापकान्वेषणार्थ गच्छतः क्रममुदाहरति गच्छेज्ज एगरादियपडिमा अज्झयणपुच्छणाकुसलो । थंडिल्लो संभोगिय अप्पडिबद्धो य सव्वत्थ ॥४०॥ 'गच्छेज्ज एगरादियपडिमा अज्झेण पुच्छणाकुसलो' गच्छेदेकरात्रिभवावग्रहे अध्ययने परप्रश्ने च कुशलः । एकरात्रिभवा भिक्षुप्रतिमा निरूप्यते । उपवासत्रयं कृत्वा चतुर्थ्यां रात्रौ ग्रामनगरादेर्बहिर्देशे श्मशाने वा प्राङ्मुखः, उदङ्मुखश्चैत्याभिमुखो वा भूत्वा चतुरङ्गुलमात्रपदान्तरो नासिकाग्रनिहितदृष्टिस्त्यक्तकायस्तिष्ठेत् । सुष्ठ प्रणि हितचित्तः चतुर्विधोपसर्गसहः न चलेन्न पतेत यावत्सर्य उदेति । स्वाध्यायं कृत्वा गव्यतिद्वयं गत्वा गोचरक्षेत्रवसतिं गत्वा तिष्ठति । यत्र विप्रकृष्टो मार्गस्तत्र सूत्रपौरुष्यामर्थपौरुष्यां वा मंगलं कृत्वा याति एवं स्वाध्यायकशलता। प्रश्नकूशलतोच्यते-चंत्यसंयतानार्यिकाः श्रावकांश्च, बालमध्यमवद्धांश्च पृष्ट्वा कृतगवेषणो याति इति प्रश्नकुशलः । यत्र भिक्षा कृता तत्र स्थण्डिलान्वेषणं कुर्यात् । कायशोधनाथं संभोगयोग्यं, यति, संघाटकत्वेन गृह्णीयात् । स्वयं वा तस्य संघाटको भवेत् । एवं स्थण्डिलांन्वेषणं संभोगयोग्ययतिना सहवृत्ती च यो यत्नपरः स्थंडिलसंभोगी य इत्युच्यते । अंतरालग्रामनगरादिसन्निवेशस्थयतिगृहिसत्कारसन्मानप्राघूर्णकभक्तादो सर्वत्र अप्रतिबद्धत्वात् 'अप्पडिबद्धो य सम्वत्थ' इत्युच्यते ॥४०५॥ निर्यापकको खोजनेके लिए जाते हुए क्षपकका क्रम कहते हैं गा.--एक रात्रि प्रतिमामें, अध्ययन में और दूसरेसे प्रश्न करनेमें कुशल वह क्षपक स्थंडिलसंभोगी और सर्वत्र अप्रतिबद्ध होता है ।।४०५।। टो०-एक रात्रिक भिक्षु प्रतिमाको कहते हैं। तीन उपवास करके चतुर्थ रात्रिमें ग्रामनगर आदिके बाहर वनमें अथवा स्मशानमें पूरब अथवा उत्तर अथवा जिनप्रतिमाकी ओर मख करके, दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रखकर, अपनी दृष्टि नाकके अग्रभाग पर रखते हुए शरीरसे ममत्व त्याग कर स्थित होवे। अपने चित्तको अच्छी तरहसे समाहित करते हुए चार प्रकारके उपसर्गको सहकर जब तक सूर्यका उदय न हो तब तक न विचलित हो, न पतित हो। फिर स्वाध्याय करके दो गव्यू तिप्रमाण गमन करके भिक्षाके क्षेत्रकी वसतिमें जाकर ठहरे। जहाँ मार्ग दूर हो वहाँ सूत्रपौरुषी अथवा अर्थपौरुषीमें मंगलाचरण करके गमन करता है । अर्थात् एक रात्रिक भिक्षु प्रतिमाकी समाप्ति पर स्वाध्याय करके भिक्षाके लिए गमन करता है। यदि भिक्षाका स्थान दूर हो तो स्वाध्यायको स्थापना करके केवल मंगलाचरण करके भिक्षा स्थानके लिए गमन करता है यह उसकी स्वाध्याय कुशलता है । आगे प्रश्नकुशलता कहते हैं -जिनालयमें स्थित संयमियों, आर्यिका और श्रावकोंसे तथा बाल, प्रौढ़ और वृद्ध पुरुषोंसे भिक्षास्थान ज्ञात करके गमन करता है यह उसकी प्रश्न कुशलता है। जहाँ भिक्षा ग्रहण की वहीं मलत्यागके लिए स्थंडिल भूमिकी खोज करे। जिस यतिके साथ सामाचारी की जा सकती है ऐसे यतिको सहायक रूपसे ले ले या स्वयं उसका सहायक हो जावे। इस प्रकार स्थंडिल भूमिकी खोजमें और सामाचारीके योग्य यतिके साथ रहने में जो प्रयत्नशील होता है उसे स्थंडिल सम्भोगी कहते है । तथा वह क्षपक रास्ते में आनेवाले ग्रामनगर आदिमें बने स्थानोंमें ठहरे हुए यति, गृहस्थ, उनके सत्कार, सम्मान और अतिथि भोजन आदिमें सर्वत्र अप्रतिबद्ध होता है। उनमें उसकी अनासक्ति २. संभोगी यतिरित्यु-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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