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________________ विजयोदया टोका २५७ कवलादिन्यूनतया अवमोदर्यवृद्धिः । एकस्य रसस्य द्वयोस्त्रयाणामित्यादिना क्रमेण रसपरित्यागवृद्धिः । एकपाटकं, गृहसप्तकं, गृहत्रयं वा प्रविशामीति, भिक्षाग्रासपरिमाणन्यूनताकरणेन वा वृत्तिपरिसंख्यानवृद्धिः । दिवसे आतपनं कृत्वा रात्री प्रतिमावग्रहकरणमित्यादिना कायक्लेशवृद्धिः । एवं श्रमै महति संजाते क्रमेण अनशनादीनां न्यूनताकरणं । 'अहवा' अथवा । 'एयंतवढमाणेहिं' एकान्तेन वर्धमानः तपोभिः । 'सल्लिहई' संलिखति । 'मुणी' मुनिः । 'देहं' । 'आहारविधि' अशनादिविधि । ‘पयणुगितो' अल्पीकुर्वन् ॥२४८॥ प्रकारान्तरेण सल्लेखनोपायमाचष्टे-- अणुपुव्वेणाहारं संवट्टतो य सल्लिहइ देहं । . दिवसुग्गहिएण तवेण चावि सन्लेहणं कुणइ ॥२४९।। 'अणुपुर्वण' क्रमेण । आहारं संवट्टतो य आहारं न्यूनयित्वा । सल्लिहइ देहं तनूकरोति । दिवसग्गहिगेण तवेण चावि एकैकदिनं प्रतिगृहीतेन तपसा ·च, एकस्मिन्दिनेऽनशनं, एकस्मिन्दिने वृत्तिपरिसंख्यानं इति । सल्लेहणं कुणइ सल्लेखनां करोति ॥२४९॥ विविहाहिं एसणाहिं य अवग्गहेहिं विविहेहिं उग्गेहिं । संजममविराहिंतो जहाबलं सल्लिहइ देहं ॥२५०॥ "विविहाहि' नानाप्रकारैः । “एसणाहिं य' भोजनः रसवजितरप्यल्पैः शुष्कराचाम्ला । 'अवग्गहेहि' नानाप्रकारैरवग्रहः । 'उग्हिं' उप्रैः । 'संजममविराधेतो' संयम द्विप्रकारं अविनाशयन् । 'जहाबलं' स्वबलानतिवृत्त्या देहं तनूकरोति ॥२५॥ सदि आउगे सदि चले जाओ विविधाओ 'भिक्खुपडिमाओ । ताओ वि ण बाघते जहाबलं सल्लिहंतस्स ॥२५१।। करनेसे अवमौदर्यकी वृद्धि होती है। एक रसका, फिर दो रसका, फिर तीन रसका, इत्यादि क्रमसे त्याग करनेसे रसपरित्यागकी वृद्धि होती है। मैं एक पाटकमें या सात घरमें या तीन घरमें प्रवेश करूंगा । अथवा भिक्षाके ग्रासोंका परिमाण कम करनेसे वृत्तिपरिसंख्यान तपकी वृद्धि होती है। दिनमें आतापन योग करके रात्रिमें प्रतिमा योग धारण करने आदिसे कायक्लेशकी वृद्धि होती है। इस प्रकार करनेसे महान् श्रम होनेपर क्रमसे अनशन आदिमें कमी करता है। या फिर बढ़ाता ही जाता है और आहारको कम करके मुनि शरीरको कृश करता है ॥२४८।। प्रकारान्तरसे सल्लेखनाका उपाय कहते हैं गा०--क्रमसे आहारको कम करते हुए शरीरको कृश करता है । और एक एक दिन ग्रहण किये तपसे, एक दिन अनशन, एक दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस प्रकार सल्लेखनाको करता है ॥२४९|| गा०-नाना प्रकारके रस रहित भोजन, अल्प भोजन, सूखा भोजन, आचाम्ल भोजन आदिसे और नाना प्रकारके उग्न नियमोंसे दोनों प्रकारके संयमोको नष्ट न करता हुआ यति अपने बलके अनुसार देहको कृश करता है ।।२५०॥ १. मायिय दुय तिय चउ पंच मास छम्मास सत्त मासी य । तिण्णेव सत्तराई राइंदिय राइपडिमाओ ॥' -मलाराधनादर्पणे । ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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