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________________ ५०२ भंगवती आराधना कक्कस्सवयणं णिठुरवयणं पेसुण्णहासवयणं च । जं किंचि विप्पलावं गरहिदवयणं समासेण ।।८२४।। 'कक्कसवयणं' कर्कशवचनं नाम सगर्ववचनमिति केचिद्वदन्त्यन्ये असत्यवचनमिति । "णिठ्ठरवयणं' निष्ठुरवचनं । 'पेसुण्णहासवयणं च'परदोषसूचनपरं वचनं पैशन्यवचनं हासावहं वचनं । 'जं किंचि विप्पलावं' पत्किचित्प्रलपनं च मुखरतया । 'गरहिदवयणं' गहिंतवचनं । 'समासेण' संक्षेपेण ।।८२४।। सावधवचनं निरूपयति जत्तो पाणवधादी दोसा जायंति सावज्जवयणं च । अविचारित्ता थेणं थेणत्ति जहेवमादीयं ।।२५।। 'जत्तो पाणवधादी दोसा जायंतीति' यस्माद्वचनाद्धेतोः प्राणवधादयो दोषा जायन्ते । 'सावज्जवयणं तं' सावधं वचनं पृथिवीं खन', महिषी वोहक (?) पयसा, प्रसूनानि चिनु । इत्येवमादिकानि 'अविचारित्ता' अविचार्य किमेवं वक्तु युक्तं न वेति । अथवा दोषोऽनेन वचसा न वेति अपरीक्ष्य चौरं चौरोऽयमिति कथनं ।।८२५॥ परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च जं भयं कुणइ । उत्तासणं च हीलणमप्पियवयणं समासेण ।।८२६॥ हासभयलोहकोहप्पदोसादीहिं तु मे पयत्तण। एवं असंतवयणं परिहरिदव्वं विसेसेण ।।८२७।। 'हासभय' हास्येन, भयेन, लोभन, क्रोधेन, प्रदोषेणेत्येवमादिना कारणेन । 'एवं असंतवयणं' एतदसद्वचनं । 'तुम' त्वया । 'पत्तेण' प्रयत्नेन । 'परिहरिदव्वं' परिहर्तव्यं । 'विसेसेण' विशेषेण ।।८२७।। एवमसद्विवादं परिहार्यमुपदर्य सत्यवचनलक्षणमुक्तासद्वचनविलक्षणतया दर्शयति गा०-कर्कश वचन अर्थात् घमण्डयुक्त वचन, निष्ठुर वचन, दूसरेके दोषोंका सूचन करनेवाले वचन, हास्यवचन और जो कुछ भी बकवाद करना, ये सब संक्षेपमें गहित वचन हैं ।।८२४॥ सावद्य वचन कहते हैं गा-जिस वचनसे प्राणोंका घात आदि दोष उत्पन्न होते हैं वह सावधवचन है। जैसे पृथ्वी खोदो। नांदका पानी भैंसने पी लिया उसे पानीसे भरो। फूल चुनो आदि । अथवा ऐसा कहनेमें दोष है या नहीं, यह विचार न करके चोरको चोर कहना सावध वचन है ।।८२५।। : गा-कठोर वचन, कटुक वचन, जिस वचनसे वैर, कलह और भय पैदा हो, अति त्रास देनेवाले वचन, तिरस्कार सूचक वचन ये संक्षेपमें अप्रियवचन हैं ।।८२६।। - गा-हास्य, भय, लोभ, क्रोध और द्वषं आदि कारणोंसे बोले जानेवाले असत्य वचनोंको हे क्षपक, तुम्हें प्रयत्नपूर्वक विशेष रूपसे नहीं बोलना चाहिए ।।८२७।।। इस प्रकार असत्यवचनोंको त्यागने योग्य बतलाकर उक्त असत्यवचनोंसे विलक्षण सत्यवचनोंका लक्षण कहते हैं १. खन । प्रहिं पीतोदकं पयसा पूरय-आ० । खन । महिषीं पीतोदकां पयसा प्रपूरय, मु० । २. ममेति-आ० मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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