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भगवती आराधना
विषय
३१५
२८६
विषय नये आचार्यको शिक्षा देनेके बाद संघको रास्तेमें मरण होनेपर भी वह शिक्षा देते हैं
२७४ आराधक है बहुत सोना नहीं, हास्य क्रीडा नहीं करना, खोजमें जाते हुए क्षपकके गुण
३१४ ____ आलस्य त्याग श्रमणधर्ममें लगना २७७ क्षपकको आता देख दूसरे गणके तपस्या में उद्योग करना
.. २७८ साधुओंकी सामाचारीका क्रम ३१५ बालवृद्ध मुनियोंकी वैयावृत्य करना २८० प्रथम वे उसकी परीक्षा करते हैं। वैयावृत्य न करनेवालोंकी निन्दा २८१ तीन दिनके पश्चात् गुरु अपनाते हैं ३१७ वैयावृत्यके गुण
बिना परीक्षाके अपनानेका निषेध वैयावृत्यसे अर्हन्त आदिमें भक्ति व्यक्त निर्यापक आचार्य कैसा होना चाहिये ३१८ होती हैं
२८५
आचार्यके आचार्यव्रत्व गुणका कथन ३१९ वैयावृत्यका एक गुण पात्रलाभ
दस कल्पोंका कथन
३२० आचार्य वयावृत्यका माहात्म्य
२८८
टीकाकारके द्वारा अचेलकताका विस्तारसे यावृत्य करनेवाला जिनाज्ञाका पालक हैं २८९
सप्रमाण समर्थन
३२१-३२७ आर्याका संसर्ग करनेका निषेध २९१ उद्दिष्ट त्याग दूसरा कल्प
३२७ त्रीवर्गका विश्वास न करनेवाला ही
शय्याधरका भोजन ग्रहण न करना ब्रह्मचारी
२९२ राजपिण्डका त्याग चतुर्थ कल्प ३२८ पार्श्वस्थ आदि कमनियोंसे दूर रहो २९३ कृतिकर्म नामक पाँचवा कल्प
३२९ उनके संसर्गसे स्वयं भी वैसे बन जाओगे २९४ जीवोंके भेद-प्रभेदोंको जानने वालोंको ही दुर्जनोंकी गोष्ठीमें दोष
व्रत देना, छठा कल्प
३३० मुजनोंके संसर्गमें गुण
२९६ प्रथम' और अन्तिम तीर्थंकरके तीर्थ में 'हतकारी कटुक वचन भी सुनने योग्य है २९९ रात्रिभोजन त्याग नामक छठा भात्म प्रशंसा से बचो
महाव्रत
३३० अपनी प्रशंसा न करने में गुण
३०२ पुरुषकी ज्येष्ठता सातवाँ कल्प ३३१ पाचरणसे गुणोंको प्रकट करनेका महत्व ३०२ प्रतिक्रमण आठवाँ स्थिति कल्प परनिन्दामें दोष ३०३ प्रतिक्रमणके भेद
३३२ गुरुका उपदेश सुनकर संघ आनन्दाश्रु
छह ऋतुओंमें एक-एक मास ही एक गिराता है ३०४ समयमें रहना नवम कल्प
३३२ गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है ३०५ वर्षाकालके चार मासोंमें एकत्र निवास, आचार्य सल्लेखनाके लिए दूसरे गणमें
दरवाँ स्थिति कल्प क्यों जाते हैं ?
३०७ इन दस कल्पोंसे युक्त आचार्य ग्राह्य अपने गणमें रहने में दोष
३०८ निर्यापकाचार्य के आचारवान होनेसे समाधिके लिए निर्यापककी खोज ३११ क्षपकका लाभ खोजने के लिए जाते हुए
आचारवानका आश्रय न लेनेमें दोष ३३५ क्षपककी चर्याका क्रम
३१२ दूसरे आधारवत्व गुणका व्याख्यान ३३६
३००
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