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________________ विजयोदया टोका ८१ 'परदिठीण पसंसा' परशब्दोऽनेकार्थवाची । क्वचिद् व्यवस्थावाची। नापरो ग्रामः पाटलिपुत्रादित्यादौ । तथा क्वचिदन्यार्थे परे आचार्या अन्ये इत्यर्थः । तथा इष्टार्थे, परं धाम गतः इष्टमिति यावत् । इह तु अन्यवाची । दृष्टिः श्रद्धा रुचिः । परा अन्या दृष्टिः श्रद्धा येषां ते परदृष्टयः । तत्त्वदृष्ट्यपेक्षया अतत्त्वदृष्टिरन्या तेषां प्रशंसा स्तुतिः । __ 'अणायदणसेवणा चेव'-अनायतनं षड्विधं मिथ्यात्वं, मिथ्यादृष्टयः, मिथ्याज्ञानं, तद्वन्तः, मिथ्याचारित्रं मिथ्याचारित्रवन्तः इति । तत्र मिथ्यात्वमश्रद्धानं तत्सेवायां मिथ्यादृष्टिरेवासौ नातिचारता। मिथ्यादृष्टीनां तु सेवा बहुमननं तेषां । मिथ्याज्ञानसेवा नाम निरपेक्षनयदर्शनोपदेश इदमेव तत्त्वमिति श्रद्धानमुत्पाद म श्रोतणामिति क्रियमाणो मिथ्याज्ञानिभिः सह संवासः तत्र अनरागो वा तदनवत्तिर्वा तत्सेवा। मिथ्याचारित्रं नाम मिथ्याज्ञानिनामाचरणं तत्रानुवत्तिद्रव्यलोभाद्यपेक्षया तेषु वा सांगत्यादिकं । एतेषां सम्यक्त्वातिचाराणां वर्जनम् ॥४३॥ गुणान्दर्शनविशुद्धिकारिणो निरूपयति उवगृहणमित्यनया उवगृहणठिदिकरणं वच्छल्लपभावणा गुणा भणिदा ।। सम्मत्तविसोधीए उवगृहणकारया चउरो ॥४४॥ उपबृंहणं नाम वर्द्धनं । बृह बृहि वृद्धाविति वचनात् । धात्वर्थानुवादी चोपसर्गः उप इति । स्पष्टे 'परदिट्ठीण' में पर शब्दके अनेक अर्थ हैं। कहीं पर शब्द व्यवस्थाका वाची होता है । जैसे पाटलिपुत्रसे अपर गाँव नहीं है। कहीं परका अर्थ अन्य है। जैसे पर आचार्य अर्थात् अन्य आचार्य । कहीं परका अर्थ इष्ट है। जैसे परं धामको गया अर्थात् इष्ट धामको गया। यहाँ पर शब्द अन्यवाची है । दृष्टिका अर्थ श्रद्धा या रुचि है। जिनकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा पर अर्थात् अन्य है वे परदृष्टि हैं । अर्थात् तत्त्वदृष्टिकी अपेक्षा अतत्त्वदृष्टि अन्य है। उनकी प्रशंसा-स्तुति सम्यग्दर्शनका अतीचार है। अनायतनके छह भेद हैं-मिथ्यात्व, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याचारित्र और मिथ्याचारित्रके धारक । उनमेंसे मिथ्यात्व तो अश्रद्धान ही है। उसकी सेवा करनेपर तो यह मिथ्यादृष्टि ही हुआ। अतः मिथ्यात्व सेवा अतीचार नहीं है। मिथ्यादृष्टियोंकी सेवाका अर्थ ना। मिथ्याज्ञानकी सेवाका मतलब है निरपेक्ष नयोंका उपदेश देना या 'यही तत्त्व है' इस प्रकारका श्रद्धान श्रोताओंको उत्पन्न कराऊँ, इस रूपमें मिथ्याज्ञानियोंके साथ संवास करना, उनसे अनुराग होना अथवा उनकी अनुकूलता । मिथ्याज्ञानियोंके आचरणको मिथ्याचारित्र कहते हैं। द्रव्यलोभ आदिकी अपेक्षासे उनका अनुवर्तन अथवा उनकी संगति । इन सम्यक्त्वके अतिचारोंको छोड़ना चाहिए ।।४३।। सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करनेवाले गुणोंको कहते हैं गाथा--उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना ये चार गुण सम्यक्त्वकी विशुद्धिको वृद्धि करनेवाले कहे हैं ॥४४॥ ___टो०-उपगृहण अर्थात् उपबंहण नाम बढ़ाने का है। क्योंकि 'बृह और बहि धातुका अर्थ वृद्धि है' ऐसा कहा है। धातुके अर्थ के ही अनुकूल 'उप' उपसर्ग है। स्पष्ट और अग्राम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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