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________________ ८० भगवती आराधना संशयमिथ्यात्वमित्युच्यते । अश्रद्धानरूपतैव लक्षणं मिथ्यात्वस्य । यथा वक्ष्यति 'तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होदि अत्थाण' मिति । अन्यथा मिथ्याज्ञानस्य मिथ्यादर्शनस्य च भेदो न भवेद, भेदश्च स्फुटो वाक्यांतरे 'मिच्छाणाणमिच्छादसणमिच्छाचारित्तादो पडिविरदोमीति' । किं च छद्मस्थानां रज्जूरगस्थाणुपुरुपादिषु किमियं रज्जुरुरगः स्थाणुः पुरुषो वा किमित्यनेकः संशयप्रत्ययो जायते इति' ते न सम्यग्दृष्टयः स्युः । कांक्षा गाद्ध आसक्तिः, सा च दर्शनस्य मलं । यद्येवं आहारे कांक्षा, स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यालंकारादिषु वाऽसंयतसम्यग्दृष्टेविरताविरतस्य वा भवति । यथा प्रमत्तसंयसस्य परीषहाकुलस्य भक्ष्यपानादिषु कांक्षा संभवतीति सातिचारदर्शनता स्यात् । तथा भव्यानां मुक्तिसुखकांक्षा अस्त्येव । इत्यत्रोच्यते न कांक्षामात्रमतीचारः किंतु दर्शनाद्वैताद्दानाद्देवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं, रूपं, वित्तं, स्त्री-पुत्रादिकं, शत्रुमर्दन, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह गृहीता एषा अतिचारो दर्शनस्य । _ 'विचिकित्सा जुगुप्सा' मिथ्यात्वासंयमादिषु जुगुप्सायाः प्रवृत्तिरतिचारः स्यादिति चेत् इहापि नियतविषया जगप्सेति मतातिचारत्वेन । रत्नत्रयाणामन्यतमे तद्वति वा कोपादिनिमित्ता जुगुप्सा इह गृहीता । ततस्तस्य दर्शनं, ज्ञानं, चरणं वाऽशोभनमिति । यस्य हि यत्र इदं भद्रं इति श्रद्धानं स तस्य जुगुप्सां करोति । ततो रत्नत्रयमाहात्म्यारुचियुज्यतेऽतिचारः । संशय मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्वका लक्षण अश्रद्धानरूपता ही है। आगे कहेंगे-'तत्त्वार्थका जो अश्रद्धान है वही मिथ्यात्व है। यदि ऐसा न हो तो मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शनमें भेद ही न हो। किन्तु अन्यत्र वचनमें स्पष्ट भेद कहा है। यथा-'मैं मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्रसे विरत होता है।' तथा छद्मस्थ जीवोंको रस्सी, सर्प, और स्थाणु पुरुष आदिमें, यह रस्सी है या साँप, अथवा स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार अनेक संशयज्ञान होते हैं। तब वे सम्यग्दृष्टी नहीं हो सकेंगे? कांक्षा गृद्धि या आसक्तिको कहते हैं । वह भी सम्यग्दर्शनका मल है। शंका-यदि ऐसा है तो असंयतसम्यग्दृष्टी अथवा विरताविरत श्रावकको आहारकी या स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला अलंकार आदिको कांक्षा होती है। तथा परीषहसे व्याकुल प्रमत्तसंयत मुनिके खान-पान आदिकी कांक्षा होती है वह भी सम्यग्दर्शनका अतीचार कहलायेगी। तथा भव्य जीवोंको मुक्ति सुखकी कांक्षा रहती ही है ? समाधान-कांक्षामात्र अतीचार नहीं है। किन्तु सम्यग्दर्शनसे, व्रतधारणसे, देवपूजासे और तपसे उत्पन्न हुए पुण्यसे मुझे अमुक कुल, रूप, धन, स्त्री-पुत्रादि, शत्रु विनाश, अथवा सातिशय स्त्रीपना, पुरुषपना प्राप्त हो इस प्रकारकी कांक्षा यहाँ ग्रहण की है। वह सम्यग्दर्शनका अतीचार है। विचिकित्सा जुगुप्साको कहते हैं । शंका-तब तो मिथ्यात्व असंयम आदिमें जुगुप्सा करना भी अतीचार हो जायेगा। समाधान–यहाँ भी नियत विषयमें जुगुप्साको अतिचाररूपसे माना है। रत्नत्रयमें किसी एकमें अथवा रत्नत्रयके धारीमें कोप आदिके निमित्तसे होनेवाली जुगुप्साका यहाँ ग्रहण किया हैं। जिसका जिसमें यह श्रद्धान है कि यह श्रेष्ठ है वह उसकी जुगुप्सा करता है। अतः रत्नत्रयके महत्त्वमें अरुचिका होना अतिचार होता है। १. ति ते सम्य-आ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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