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________________ विजयोदया टोका ३४५ जात्या भत्तो यः कुलाद्वापि रूपादेश्वर्याद्वा ज्ञानतो वा बलाद्वा । प्राप्यार्थ वा यस्तपो वा परेष निन्दायक्तः स्तौति वात्मानमेव ॥१॥ अन्यावज्ञानावरातिकमाणां कर्ता मानं योऽतिमात्र बिभर्ति । 'नीचेर्गोत्रं नाम कमष बाल्यावघ्नात्यानं निन्दितं जन्मवासे ॥२॥ यस्तु प्राप्याप्यत्तमत्वं कुलाधरन्यान्बुद्धघा मन्यमानो विशिष्टान् । अन्यान्कांश्चिन्नावजानाति धोरान्नीचर्वत्या युज्यते वाषिकेषु ॥ ३ ॥ पृष्टोऽप्यन्यैर्नान्यदोषान्ब्रवीति नात्मानं वा स्तौति निमकमानः । उच्चंर्गोत्रं नाम कमव धीमान् बनातीष्टं जन्मवासे प्रजानाम् ॥ ४ ॥ इति । [ ] नीरोगतापि दुर्लभा, असकृदसवेद्यकर्मबन्धनात् । बन्धाच्छेदात्ताडनान्मारणाद्दाहाद्रोधाच्चासद्वेद्यमेव वध्नाति । तथा चाभ्यधायि अन्येषां यो दुःखमनोऽनुकम्पा त्यक्त्वा तो तीवसंक्लेशयुक्तः । बन्धच्छेदैस्ताडन रणश्च दाहै रोधश्चापि नित्यं करोति । सौख्यं काङ्क्षन्नात्मनो दुष्टचित्तो नोचो नीचं कर्म कुर्वन्सदेव । पश्चात्तापं तापिना यः प्रयाति बध्नात्येषोऽसातवेधं सदैवम् ॥ इति । [ ] रोगाभिभवान्नष्टबुद्धिचेष्टः कथमिव हितोद्योगं कुर्यात् । तथा चाभाणि प्राप्नोत्युपात्तादिह जीवतोऽपि महाभयं रोगमहाशनिभ्यः । यथाशनिः खान्निपतत्यबुद्धो रोगस्तथागत्य निहन्ति देहम् ॥१॥ परिणामोंसे विपरीत परिणाम करके बार-बार नीचगोत्रका बन्ध करता है इससे पूज्य कुल दुर्लभ है। कहा है जो जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान या बलका मद करता है, धन अथवा तपको प्राप्त करके दूसरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करता है, अन्यकी अवज्ञा, अनादर और तिरस्कार करके खूब घमण्ड करता है वह बचपनसे ही नीचगोत्र नामक कर्मका बन्ध करके नीचकुलमें जन्म लेता है। और जो उत्तमकुल आदि प्राप्त करके दूसरोंको अपनेसे विशिष्ट मानता है, किसीकी भी अवज्ञा नहीं करता । अपनेसे अधिकोंमें नम्रव्यवहार करता है। पूछनेपर भी दूसरोंके दोष नहीं कहता और अपनी प्रशंसा नहीं करता । वह मानरहित व्यक्ति उच्चगोत्रका बन्ध करता है जो जनताको इष्ट है। ___ नीरोगता भी दुर्लभ है क्योंकि जीव निरन्तर असातावेदनीयकर्मका बन्ध करता है। बन्धन, छेदन, ताड़न, मारण, दाह, और रोगसे असातावेदनीय ही कर्म बंधता है। कहा हैजो अज्ञानी तीव्र संक्लेशसे युक्त हो, दया त्याग दूसरोंको बन्धन, छेदन, ताड़न, मारण, दाह और रोधसे नित्य तीव्र दुःख देता है, जो दुष्टचित्त नीच पुरुष अपनेको सुख चाहता हुआ सदैव नीचकर्म करता है और सताये हुएसे सताये जानेपर पछताता है वह सदैव असातवेदनीयको बाँधता है। रोगसे ग्रस्त होनेपर उसकी बुद्धि और चेष्टा नष्ट हो जाती है तब वह कैसे अपने हितका उद्योग कर सकता है ? कहा है इस लोकमें जीवन प्राप्त करके भी वह रोगरूपी महान् वज्रपातसे महाभयग्रस्त रहता ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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