SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ भगवती आराधना णामः । एवमादिपरिणामानामसुलभता अनुभवसिद्धव । इत्थं दुर्लभमनुजत्वं साधुवदने परुषमिव वचः । धर्मरश्मिमण्डले तम इव, चण्डकोपे दयेव, लुब्धे सत्यवचनमिव, मानिनि परगुणस्तवनमिव, वामलोचनायामार्जवमिव, खलेषूपकारज्ञतेव, आप्ताभासमतेषु वस्तुतत्त्वावबोध इव । तह चेव मनुजत्वमिव । 'देसकुलरूवमांरोग्गमाउगं बुद्धी' देशः, फुलं, रूपं, आरोग्य, आयुर्बुद्धिश्च । 'सवणं गहणं सड्ढा य' संजमो श्रवणं, ग्रहणं श्रद्धा संयमश्वेत्येते 'दुल्लहा' दुर्लभा लोके । तत्र देशदुर्लभतोच्यते । कर्मभूमिजा, भोगभूमिजा अन्तर्वीपजाः सम्मूच्छिमाः इति चतुःप्रकारा मनुजाः । पञ्च भरताः, पश्चैरावताः, पञ्च विदेहाः इति पञ्चदशकर्मभूमयः । पञ्च हैमवतवर्षाः, पञ्च हरिवर्षाः, पञ्च देवकुरवः, पञ्च उत्तरकुरवः, पञ्च रम्यकाः, पञ्च हैरण्यवतवर्षाः त्रिंशद्भोगभूमयः । लवणकालोदधिसमुद्रयोरन्तरद्वीपाः । चक्रिस्कन्धावारप्रसवोच्चारभूमयः शुक्रसिंहाणकश्लेष्मकर्णदन्तमलानि चाङ्गलासंख्यातभागमात्रशरीराणां सम्मूच्छिमानां जन्मस्थानानि । तत्र भोगभूमिमन्तरद्वीपं च परिहृत्य कर्मभूमिपूत्पत्तिदुर्लभा । कर्मभूमिषु च बर्वरचिलातकपारसीकादिदेशपरिहारेण अङ्गवङ्गमगधादिदेशेषु उत्पत्तिः । लब्धेऽपि देशे चाण्डालादिकुलपरिहारेण तपोयोग्ये कुले जातौ । जातिर्मातृवंशः । सुकुलं कथं दुर्लभं इति चेदत्रोच्यते । जाति, कुलं, रूपं, ऐश्वर्य, ज्ञानं, तपो, वलं वा प्राप्य अगर्वितत्वं अन्येऽप्येतैगुणरधिकाः स्वबुद्धधानमनं, परानवज्ञाकरणं, गुणाधिकेपु नीचैवृत्तिः, परेण पृष्टस्यापि अन्यदोषाकथनं, आत्मगुणस्यास्तवनं, इत्येतैः परिणामैः उच्चैर्गोत्रं कर्म आपाद्यते तेन कुलेषु पूज्येषु जायते जन्तुरयं पुनर्न तथा प्रवर्तते जडमतिः । कित्वेतद्विपरीतेषु परिणामेषु वर्तमानो नीचैर्गोवमेव वघ्नाति असकृत्तेन पूज्यं कुलं दुर्लभं । उक्तं च इस प्रकारके परिणामोंकी दुर्लभता अनुभवसे सिद्ध है। इस प्रकार मनुष्य जन्म वैसे ही दुर्लभ है जैसे साधुके मुख में कठोर वचन. सूर्यमण्डलमें अन्धकार, प्रचण्ड क्रोधीमें दया, लोभीमें सत्यवचन, मानीमें दूसरेके गुणोंका स्तवन, स्त्रीमें सरलता, दुर्जनोंमें उपकारको स्वीकृति, आप्ताभासोंके मतों में वस्तु तत्त्वका ज्ञान दुर्लभ है । देश, कुल, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, ग्रहण, श्रवण और संयम ये लोकमें उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। ___ उनमेंसे देशकी दुर्लभता कहते हैं—मनुष्य चार प्रकारके हैं—कर्मभूमिया, भोगभूमिया, अन्तर्वीपज और सम्मूछिम । पाँच भरत, पाँच ऐरावत, पाँच विदेह ये पन्द्रह कर्मभूमिया हैं। पाँच हैमवत वर्ष, पाँच हरिवर्ष, पाँच उत्तरकुरु, पाँच देवकुरु, पाँच रम्यक, पाँच हैरण्यवत, ये तीस भोगभूमियाँ हैं । लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्रमें अन्तर्वीप हैं । चक्रवर्तीकी सेनाके निवासस्थानकी मलमूत्र त्यागनेको भूमियाँ, वीर्य, नाक, थूक, कान और दाँतका मैल, ये अंगुलके असंख्यात भाग शरीरवाले सम्मूर्छन जीवोंके जन्मस्थान हैं। उनमेंसे भोगभूमि और अन्तरद्वीपको छोड़ कर्मभूमियोंमें उत्पत्ति दुर्लभ है। कर्मभूमियोंमें वर्बर, चिलातक, पारसीक आदि देशोंको छोड़ अंग, बंग, मगध आदि देशोंमें उत्पत्ति दुर्लभ है। योग्य देश मिलनेपर भी चाण्डाल आदि कुलोंको छोड़ तपके योग्य कुल जाति मिलना दुर्लभ है । मातृवंशको जाति कहते हैं । शङ्का-सुकुल कैसे दुर्लभ है ? समाधान-जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य', ज्ञान, तप और बलको पाकर अन्य भी इन गुणोंसे अधिक है ऐसा अपनी बुद्धिसे मानकर गर्व न करना, दूसरोंकी अवज्ञा न करना, अपनेसे जो गुणोंमें अधिक हों उनसे नम्र व्यवहार करना, दूसरेके पूछनेपर भी किसीके दोष न कहना, अपने गुणोंकी प्रशंसा न करना, इस प्रकारके परिणामोंसे उच्चगोत्रका बन्ध होता है। उससे पूज्य कुलोंमें जन्म होता है। किन्तु यह अज्ञानी जीव उस प्रकारकी प्रवृत्ति नहीं करता, बल्कि उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy