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________________ २०२ भगवती आराधना प्रमाणं तस्य । स चालोचनां श्रुत्वा शुद्धि करोति । कल्पस्थितमाचार्य मुक्त्वा शेषाणां मर्द्धा अग्रे परिहारसंयम गृह्णन्ति इति परिहारका भण्यन्ते । शेषास्तेषामनुपरिहारकाः। पश्चात्परिहारसंयमग्राहिणः अनुपरिहारका भण्यन्ते । एवं कल्पस्थिते सति ये पश्चात्परिहारसंयमार्थमात्मानमुपसृतास्तानपि स्वगणे प्रक्षिपति गणी। यावद्धिरूनो गणः तावत्प्रमाणं गणं कृत्वा परिहारकाननुपरहारिकांश्च व्यवस्थापयति । तेन परिहारसंयम निविशमाना अनुपरिहारकाश्च एको द्वौ बहवो वा भवन्ति । जदि तिण्णि, एगो गणी विदिओ परिहारसंयम पडिवण्णो, तदिओ अणुपरिहारगो। जदि पंच एको कप्पट्टिदो, दो परिहारसंजमं पडिवज्जति। तेसिमणपरिहारगा पत्तेगं । इतरे जदिसत्त एगो कप्पट्ठिदो, तिण्णि परिहारगा, इदरे तिण्णि अणुपरिहारगा। जदि णव एगो कप्पट्ठिदो, चत्तारि परिहारिगा, चत्तारि अणुपरिहारिगा। छहिं मासेहिं परिहारीणिविट्ठाणी हवंति । ततो पच्छा अणुपरिहारी परिहारं पवेदिदु । तेसि णिविट्ठपरिहारी हवंतेणुपरिहारगारे ते पुणो छहिं मासेहिं णिविट्ठाई भवन्ति । तु कप्पट्ठिदो पच्छा परिहार पवज्जदि । तस्सेगो अणुपरिहारी एगो कप्पट्ठिदो वि । असोविअ छहिं मासेहिं णिविट्ठपरिहारगो अट्ठारसमासा ते एवं होंति पमाणदो। होनेपर गुरुके रूपसे स्थापित करते हैं। उस गणके लिए वह प्रमाण होता है। वह आलोचना सुनकर उनकी शुद्धि करता है। कल्पस्थित आचार्यको छोड़कर शेषमेंसे आधे पहले परिहार संयमको ग्रहण करते हैं इसलिए उन्हें परिहारक कहते हैं। शेष उनके अनुपरिहारक होते हैं । जो पीछे परिहारसंयम ग्रहण करते है वे अनुपरिहारक कहे जाते हैं। इस प्रकार कल्पस्थित होनेपर जो पीछे परिहार संयमके लिए अपनेको उपस्थित करते हैं उन्हें भी गणी अपने गणमें मिला लेता हैं। जितने साधु गणमें कम हुए हैं उतने प्रमाण गणको करके परिहारकों और अनुपरिहारकोंको व्यवस्था गणी करता है। अतः परिहार संयममें प्रवेश करनेवाले अनुपरिहारक एक दो अथवा बहुत होते हैं। यदि तीन होते हैं तो उनमेंसे एक गणी, दूसरा परिहारसंयमका धारी और तीसरा अनुपरिहारक होता है। यदि पाँच होते हैं तो उनमें एक कल्पस्थित गणी, दो परिहारसंयमके धारी और उन दोनोंमें प्रत्येकका एक-एक अनुपरिहारक होता है। यदि सात होते हैं तो उनमें एक कल्पस्थित, तीन परिहारक और शेष तीन अनुपरिहारक होते हैं। यदि नौ हों तो एक कल्पस्थित, चार परिहारक और चार अनुपरिहारक होते हैं। छह महीने तक परिहार संयमी परिहारसंयममें निविष्ट होता है। उसके पश्चात् अनुपरिहारक परिहारसंयममें प्रविष्ट होता है । उनके भी निविष्ट परिहारक होनेपर अन्य अनुपरिहारक परिहार संयममें प्रविष्ट होते हैं। वे भी छह मासमें निविष्ट परिहारक हो जाते हैं। पीछे कल्पस्थित परिहारमें प्रविष्ट होता है। उसका एक अनुपरिहारक और एक कल्पस्थित होता है। वह भी छह मासमें निविष्टपरिहारक होता है । इस प्रकार प्रमाणसे अठारह मास होते हैं। विशेषार्थ-इसका खुलासा है कि परिहारविशुद्धि संयममें तीन मुनि धारण करनेवाले हों तो उनमेंसे एक कल्पस्थित होता है जो गणी कहाता है, दूसरा परिहारक होता है और तीसरा अनुपरिहारक है । संयममें प्रवेश करनेके छह मास बीतनेपर परिहारक निविष्ट हो जाता है तब अनुपरिहारक संयममें प्रवेश करता है । छह महीना बीतनेपर वह भी निविष्ट परिहारक हो जाता १. तस्य गणस्य-आ० मु०। ४. पडिव-मु०। २. णां अग्रे-अ०। ३. रगते आ० ।-रगे ते मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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