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________________ ४८ भगवती आराधना तेति एतस्य जयः । परोक्षस्योपायोपेयभावस्य अप्रत्यक्षत्वात । अनुमानस्य च प्रत्यक्षपृष्ठभाविनस्तत्रावृत्तः । मः सर्वज्ञन निरस्तरागद्वेषेण प्रणीतः उपेयोपायतत्त्वस्य ख्यापकः आश्रयणीयः । कपिलादीनामसर्वज्ञतया न तत्प्रणीत आगमोऽदृष्टप्रतिपत्तावुपायः । तदसर्वज्ञता दृष्टेष्टप्रमाणविरुद्धवचनतया रथ्यापुरुषवत् । नित्यस्तु न शब्दो विद्यते। यदि स्यात्सर्वस्य नित्यतया पुरुषदोषानपश्लिष्टतास्तीति प्रामाण्यं भवेत् ततो जिनागमेन हिंसाया दुःखहेतुत्वप्रतीविपर्ययमिथ्यात्वप्रसिद्धिः तस्य जयः अविपरीतज्ञानेन । 'आराधणापडायं' आराधनापताकां । 'हरदि' गृह्णाति । 'सुसंथाररंगम्मि' शोभनासंस्तररंगे उद्गमादिदोदोषानुपहतता शोभनता ॥ चिरमभावितरत्नत्रयाणामतंमुहूर्तकालभावनानां सिद्धिरिष्यते तत्कि चिरभाव नयेत्यस्योत्तरमाचष्टे पुव्वमभाविदजोंग्गो आराधेज्ज मरणे जदि वि कोई । खण्णुगदिळंतो सो तं खुपमाणं ण सव्वत्थ ॥२४॥ 'पुवं' पूर्व मरणकालात् । 'अभावितजोग्गो' अभावितपरिकरः । 'आराधेज्ज' आराधयेत् । किं मरणं रत्नत्रयानुगतभवपर्यायप्रलयं । 'जदि वि' यद्यपि । 'कोई कश्चित् । 'खण्णुगविठ्ठंतो' स्थाणु दृष्टान्तः । 'सो' सः। 'तं ख' तदेव । अकृतपरिकरस्य कस्यचिद्रत्नत्रयसमापन्न । 'सम्वत्थ' सर्वत्र । 'ण पमाणं न पमाणं । अर्थाख्यानमत्र वाच्यम् ॥२४॥ एवं पीठिका समाप्ता ।। स्वर्गादिका हेतु मानना और अहिंसाको दुर्गतिका कारण मानना विपर्ययमिथ्यात्व है। इसकी जयका उपाय कहते हैं __ उपायपना और उपेयपना परोक्ष है, प्रत्यक्ष नहीं है। प्रत्यक्षके पीछे होनेवाला अनुमान भी उन्हें नहीं जान सकता। रागद्वेषसे रहित सर्वज्ञके द्वारा कहा गया आगम ही उपाय और उपेयभावकों बतलाता है उसीका आश्रय लेना चाहिए। कपिल आदि सर्वज्ञ नहीं थे। अतः उनके द्वारा कहा गया आगम अदृष्टको जाननेका उपाय नहीं है। कपिलादिके वचन सड़कपर घूमते आदमीकी तरह प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे विरुद्ध है अतः वे सर्वज्ञ नहीं हैं। तथा यह कहना कि वेद नित्य है ठीक नहीं है क्योंकि शब्द नित्य नहीं होता। यदि शब्द नित्य हो तो सभी शब्दोंके नित्य होनेसे पुरुषोंके दोष उसमें नहीं प्रवेश कर सकते अतः सभी शब्द प्रमाण मानने होंगे। अतः जिनागमसे प्रसिद्ध है कि हिंसा दुःखका कारण है अतः उसे सुखका कारण मानना विपर्ययमिथ्यात्व है । अविपरीत सच्चे ज्ञानसे उसको जीता जाता है ॥२३॥ यहाँ कोई शङ्का करता है कि जिन्होंने चिरकाल तक रत्नत्रयकी भावना नहीं भायी है, केवल अन्तर्मुहर्तकालतक ही रत्यत्रयकी आराधना की है, उनकी भी मुक्ति मानी जाती है तब आप चिरकाल भावनाकी बात कैसे करते हैं, इसका उत्तर देते हैं गा०–मरण समयसे पहले ध्यानके परिकरका अभ्यास न करनेवाला यद्यपि कोई मरते समय आराधना करे तो वह स्थाणुदृष्टान्मात्र है । सर्वत्र (पमाणं ण) प्रमाण नहीं है ॥२४॥ टो०-जैसे यदि किसीको किसी दूंठमेंसे अचानक धनका लाभ हो जाये तो उसे सर्वत्र प्रमाण नहीं माना जाता। उसी तरह यदि किसीने मरनेसे पूर्व रत्नत्रयका अभ्यास नहीं किया और कदाचित् मरते समय किया और उसे सिद्धि प्राप्त हो गई तो उसे सर्वत्र प्रमाणके रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता ॥२४॥ इस प्रकार पीठिका समाप्त हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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