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________________ ८०४ भगवती आराधना गुणैरनेकैरपि संयुतां स्त्रियं कृतापचारां सकृवप्यनिघृणः । नरो जहात्येव यथा तथा बुधो न दृष्टिदोषादिव सोमिच्छति (?) 'कुणिमम्मि वसति गम्भे' कुथितगर्भे वसति । 'धिगत्यु संसारवासस्स' धिगस्तु संसारवासस्य । उक्तं च-- त्यागाद्भोगादेव 'समुत्थं मनुजेषु गर्भस्मृत्या गर्भनिपातं च समीक्ष्य । त्रस्तादेव देहाशुचीनपि निरीक्ष्य गर्भाविष्टा दुःखमिवान्तेऽनुभवन्ति ॥१७९७॥ इध किं परलोगे वा सत्तू पुरिसस्स हुंति णीया वि । इहइं परत्त वा खाइ पुत्तमंसं णिययमादा ॥१७९८॥ 'इत्थ कि परलोगे वा' इहलोके परलोके वा, 'पुरिसस्स णीया वि सत्तू होंति' बंधवोऽपि शत्रवो भवंति पुरुषस्य । 'इहई परत्त वा खाइ' इह वा परत्र वा अत्ति, 'पुत्तमंसं णिययमादा' पुत्रस्य मांसं आत्मीया जननी अत्ति किमतः परं कष्टं ।।१७९८॥ होऊण रिऊ बहुदुक्खकारओ बंधवो पुणो होदि । . इय परिवत्तइ णीयत्तणं च सत्तुत्तणं च जये ॥१७९९।। 'होऊण रिऊ' रिपुर्भूत्वा पूर्व । 'बहुदुक्खकरो' विचित्रदुःखकारी। स एव पुणो पश्चादपि । 'पिय बन्धवो होदि' प्रियबांधवो भवति । 'इय परिवत्तदि' एवं परिवर्तते । 'णोगत्तणं च सत्तुत्तणं च' बन्धुत्वं च शत्रुत्वं च । 'जर्गे' जीवलोके ॥१७९९।। विमलाहेदं वेकेण मारिओ णिययभारियागब्भे । जाओ जाओ जार्दिभरो सुदिट्ठी सकम्मेहिं ॥१८००॥ 'विमलाहेढुं' विमलानिमित्तं । 'वकेण मारिवो' वक्राख्येन भृतकेन मारितः । कः ? 'सुदिट्ठी' सुदृष्टिहो जाता है उसी प्रकार दुःखका जरा सा भी अंश सब सुखको दूषित कर देता है। जैसे अनेक गुणोंसे युक्त स्त्री यदि एक बार भी व्यभिचार दोषसे दूषित हो जाये तो दयालु भी मनुष्य उसे त्याग देता है। उसी प्रकार ज्ञानी मनुष्य भी दुःखसे मिश्रित सुखको त्याग देता है। अतः कहा है-मनुष्योंमें गर्भका स्मरण करके तथा गर्भपातको देखकर और मनुष्योंके अपवित्र शरीरको देखकर देव दुःखी होते हैं और मरण होनेपर गर्भमें प्रवेश करके दुःख भोगते हैं ॥१७९७॥ गा०-इस लोक अथवा परलोकमें बन्धु भी मनुष्यके शत्रु हो जाते हैं। इस लोक तथा परलोकमें माता भी अपने पुत्रके मांसको खाती है इससे अधिक कष्टकी बात और क्या है ? ॥१७९८॥ गा०-बहुत दुःख देनेवाला शत्रु भी पुनः प्रिय बन्धु हो जाता है। इस प्रकार जगत्में बन्धुता और शत्रुता परिवर्तनशील है ॥१७९९।। गा-सुदृष्टि नामक रत्नपारखी मैथुन करते समय अपनी पत्नी विमलाके निमित्तसे १. समुत्थान् अ० । २. त्रस्ता देहचशुनीवि -अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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