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________________ विजयोदय टीका आदहिदपरिण्णा इत्यस्य व्याख्यानं गाथोत्तरा णाणेण सव्वभावा जीवाजीवासवादिया तघिगा । णज्जदि इह परलोए अहिदं च तहा हियं चैव ॥ १० 11 'णाणेण' ज्ञानेन । 'सव्वभावा' सर्वे पदार्था: । 'जीवाजीवादिगा' जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षाः । 'सधिगा' तथ्यभूताः । 'णज्जंति' ज्ञायन्ते । 'तथा' तेनैव प्रकारेण । 'इहपरलोए' इह परस्मिश्च लोके । 'अहद' अहितं । 'हिदं हितं चैव । ननु च आदहिदपरिण्णा इत्यत्र हितस्यैव हि सूचितत्वात् जोवादिपरिज्ञानं असूचितं कथं व्याख्यायते पूर्वमभिहितं हितमनुक्त्वा ? अत्रोच्यते-आत्मा च हितं च आत्महिते तयोः परिज्ञानं इति गृहीतं । न चात्मनो हितमिति । ततो युक्तं व्याख्यातं । एवमपि जीव एव निर्दिष्ट इत्यजीवाद्युपन्यासः कथं ? आत्मशब्दवस्तूपलक्षणत्वाददोषः । जीवाजीवात्रवबंधसंवर निर्जरामोक्षास्तत्त्वं [त०सू० १८] इत्यत्र सूत्रे आदी निर्दिष्टो जीवः प्रसिद्धस्तेनोत्तरोपलक्षणं क्रियते । अथवा आत्मन्यज्ञाते हितमेव दुर्ज्ञातं आत्मपरिणामो हि हितं तच्च स्वास्थ्यं । तच्च स्वरथे आविदिते स्वास्थ्यं सुज्ञातं भवति । तत आत्मा ज्ञातव्यः । १३३ जादं सयं समत्त णाणमणं तत्थवित्थिदं विमलं । रहिदं तु उग्गहादिहिं सुहंति एयंतियं भणियं" [प्र० ० १५] | इति वचनात् अनंतज्ञानरूपं सुखं यदि हितमिति गृहीतं, तथापि चेतनाया जीवत्वाच्चैतन्यावस्थास्वरूपत्वात् केवलस्यावस्थानात् आत्मा ज्ञातव्य एव । मोक्षस्तु कर्मणां तदपायतयाधिगंतव्यः । तत्परिज्ञानमजीवेऽनिर्ज्ञाते न भवति । पुद्गलानामेव द्रव्यकर्मत्वात् तद्वियोगस्य मोक्षत्वात् । स च मोक्षो बंधपुरस्सरः । न आगे आत्महित परिज्ञानका व्याख्यान करते हैं गा० – ज्ञानके द्वारा जीव अजीव आस्रव आदि सब पदार्थ तथ्यभूत जाने जाते हैं । उस प्रकारसे इस लोक और परलोकमें अहित और हित जाना जाता है ॥१००॥ टी० - शंका- 'आत्महित परिज्ञा' इस पदमें तो हितको ही सूचित किया है, जीवादिके परिज्ञानको तो सूचित नहीं किया है तब पहले कहे गये हितका कथन न करके जीवादि परिज्ञानका व्याख्यान क्यों किया है ? Jain Education International समाधान - आत्महित परिज्ञानका अर्थ आत्मा और हितका परिज्ञान लिया है । 'आत्माका हित' अर्थ नहीं लिया है । अतः जीवादिका व्याख्यान करना युक्त है । शंका - - ऐसा अर्थ करनेपर भी जीवका ही निर्देश किया है । तब अजीव आदिका उपन्यास क्यों किया ? समाधान- आत्म शब्द अजीवादिका उपलक्षणरूप होनेसे कोई दोष नहीं है । क्योंकि 'जीवाजीवा' इत्यादि सूत्रमें जीवका प्रथम निर्देश प्रसिद्ध है उससे आगेके अजीवादिका उपलक्षण किया है । अथवा, आत्माका ज्ञान हुए विना उसके हितको जानना कठिन है । आत्माका परिणाम हित है और वह स्वास्थ्य है । अतः स्वस्थका ठीक ज्ञान होनेपर स्वास्थ्यका सम्यग्ज्ञान होता है । अतः आत्मा ज्ञातव्य है । अथवा ऐसा कहा है- अनन्त पदार्थों में व्याप्त और अवग्रह आदिके क्रमसे रहित निर्मल सम्पूर्णज्ञान जो परकी सहायताके विना स्वयं होता है उसे एकान्तसे सुखरूप कहा है।' इस कथन से यद्यपि अनन्तज्ञानरूप सुखको हित स्वीकार किया है तथापि चेतना जीव है और केवलज्ञान चैतन्य अवस्था स्वरूप है अतः आत्मा ज्ञातव्य ही है और मोक्ष कर्मोंके विनाशरूप होनेसे जानने योग्य है । कर्मोंका ज्ञान अजीवको जाने विना नहीं होता, क्योंकि पुद्गल ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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