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________________ १३२ भगवती आराधना जिनवचनशिक्षायां गुणान्संहृत्य कथयति आदहिदपइण्णा भावसंवरो णवणवो या संवेगो ॥ णिक्कंपदा तवो भावणा य परदेसिगत्तं च ।।९९।। आदहिदपइण्णा आत्महितपरिज्ञानं । इंदियसुखं अहितं परिहितमिति गृह्णन्ति जनाः । दुखप्रतीकारमात्रं तत् ? अल्पकालिकं, पराधीनं, रागानुबंधकारि, दुर्लभं, भयावहं, शरीरायासमात्र, अशुचिशरीरासंस्पर्शनजं । तत्रास्य बालस्य सुखबुद्धिः । निःशेपदुखापायजनितं स्वास्थ्यं अचलं सुखमिति न वेत्ति । जिनवचोऽभ्यासात्वधिगच्छति । 'भावसंवरों' भावः परिणामः तस्य संवरो निरोधः । ननु परिणाममंतरेण न द्रव्यस्यास्ति क्षणमांत्रमप्यवस्थानं तत्किमच्यते भावसंवर इति । परिणामविशेषवृत्तिरिह भाव शब्द इति मन्यते। तथा वक्ष्यति 'सज्झायं कुव्वंतो पंचदीसंवुडो इति' अशुभकर्मादाननिमित्तपरिणामग्रहणमिह सरागापेक्षया। वीतरागाणां त केषांचिच्छद्धोपयोगनिमित्ततया पुण्यासवपरिणामसंवरोऽपि ग्राह्यः । 'णवणवो य' प्रत्ययः प्रत्यग्रः । 'सवेगो' धर्मे श्रद्धा जिनवचनाभ्यासादुपजायते । “णिक्कंपदा' निश्चलता। क्व ? रत्नत्रये । 'तवो' स्वाध्यायाख्यं तपश्च । 'भावणाय' भावना च गुप्तीनां । 'परदेसिगत च' परेषामुपदेशकता च ॥ जिनवचनकी शिक्षामें जो गुण हैं उन्हें कहते हैं गा०-आत्महितका ज्ञान होता है। भाव संवर होता है। नवीन-नवीन संवेग होता है रत्नत्रयमें निञ्चलता होती है । स्वाध्याय तप होता है और भावना होती है। और दूसरोंको उपदेश करनेकी क्षमता होती है ॥१९॥ ट्रोल-जिनवचनके पढ़नेसे आत्महितका परिज्ञान होता है-इन्द्रिय सुख अहितकर है उसे लोग हितकर ग्रहण करते हैं। इन्द्रिय सुख दुःखका प्रतोकार मात्र है, अल्पकाल तक रहता है। पराधीन है, रागका सहचारी है, दुर्लभ है (?), भयकारी है, शरीरका आयासमात्र है, अपवित्र शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न होता है । उसको यह अज्ञानी सुख मानता है। समस्त दुःखोंके विनाशसे उत्पन्न हुआ स्वास्थ्य-आत्मामें स्थितिरूप भाव-स्थायी सुख है यह नहीं जानता। वह सुख जिनवचनके अभ्याससे प्राप्त होता हैं। भाव अर्थात् परिणामका, संवर अर्थात् निरोध भावसंवर है। शका-परिणामके विना द्रव्य एक क्षण भी नहीं रह सकता । तब आप कैसे भावसंवर कहते हैं ? समाधान यहाँ भाव शब्द परिणाम विशेषका वाचक लिया गया है। आगे कहेंगेस्वाध्याय करनेवाला पाँचों इन्द्रियोंसे संवृत होता है। अत: यहां सरागकी अपेक्षासे अशुभ कर्मों के ग्रहणमें निमित्त परिणामका ग्रहण किया है। वीतरागोंमेंसे तो किन्हींके जिनवचन शुद्धोपयोग में निमित्त होता है इसलिये भावसंवरसे पुण्यास्रवमें निमित्त परिणामोंका संवर भी ग्राह्य है । जिनवचनके अभ्याससे नित नया 'संवेग' अर्थात् धर्ममें श्रद्धा उत्पन्न होतो है । रत्नत्रयमें निश्चलता आती है। स्वाध्यायनामक तप होता है, गुप्तियोंकी भावना होती है तथा दूसरोंको उपदेश देनेकी सामर्थ्य आती है ॥९९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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