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________________ विजयोदया टीका 'एवं णिप्पडियारं' एवं स्वपरकृतप्रतीकाररहितं प्रायोपगमनं जिना वदन्ति, निश्चयेन तत्प्रायोपगमनमनोहारमचलं स्याच्चलमपि उपसर्गे परकृतं चलनमपेक्ष्य ॥२०६३॥ एतदेवोत्तरगायया स्पष्टयति उवसग्गेण वि साहरिदो सो अण्णत्थ कुणदि जं कालं । तम्हा वृत्तं णीहारमदो अण्णं अणीहारं || २०६४।। एतदेव स्पष्टयति ॥ २०६४ || पडिमा पडिवण्णा वि ह करंति पाओवगमणमप्पेगे | दीद्ध विहरता इंगिणिमरणं च अप्पेगे || २०६५|| 'पडिमा पडिवण्णा विदु' प्रतिमाप्रतिपन्ना अपि एके प्रायोपगमनं कुर्वन्ति, एके इङ्गिणिमरणं । पाउगं ॥२०६५ ॥ आगाढे उवसग्गे दुब्भिक्खे सव्वदो विदुत्तारे || कदजोगि समधियासिय कारणजादेहिं वि मरंति || २०६६ || 'आगाढे उवसग्गे' उपसर्गे महति दुर्भिक्षे वा दुरुत्तरे जाते कृतयोगिनः परीपहसहाः कारणजातमाश्रित्य मरणे कृतोत्साहा भवन्ति । तस्यैव वस्तुन उदाहरणानि उत्त रगाथाभिस्सूच्यन्ते ॥२०६६॥ ८८५ निश्चयसे प्रायोपगमन अचल होता है । किन्तु उपसर्ग अवस्थांमें मनुष्यादिके द्वारा चलायमान किये जानेपर चल भी होता है अर्थात् स्वयं शरीरको न हिलानेसे तो अचल हो हैं किन्तु दूसरे के द्वारा हिलाने पर चल होता है ||२०६३।। आगेकी गाथासे इसीको स्पष्ट करते हैं— गा०—उपसर्गं अवस्था में एक स्थानसे उठाकर दूसरे स्थान में डाल दिये जाने पर यदि वह वहीं मरण करता है तो उसे नीहार कहते हैं, और ऐसा नहीं होनेपर पूर्व स्थानमें ही मरण हो तो वह अनीहार कहाता है || २०६४ || गा० - जिनकी आयुका काल अल्पशेष रहता है वे प्रतिमा योग धारण करके प्रायोपगमन करते है । और कुछ दीर्घकाल तक विहार करते हुए इंगिनीमरण करते है || २०६५ || विशेषार्थ - आशाधर जी ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है—कुछ तो सल्लेखना न करके ही कायोत्सर्ग पूर्वक प्रायोपगमन करते हैं और कोई चिरकाल तक उपवास करके प्रायोपगमन करते हैं । इसी प्रकार इंगिणी भी जानना । अर्थात् उन्होंने दोनों मरणोंके दो-दो प्रकार कहे हैं। ऊपर के अर्थ के अनुसार अल्प आयु वाले प्रायोपगमम करते हैं इसीसे वे अपने शरीरकी सेवा न स्वयं करते हैं न दूसरेसे कराते हैं । दीर्घ आयु शेष रहने वाले इंगिनीमरण करते हैं अतः वे अपने शरीरकी सेवा स्वयं तो करते हैं दूसरेसे नहीं कराते । उन्हें स्वयं मलमूत्रादि का त्याग तो करना होता ही है || २०६५ || Jain Education International गा० – महान् उपसर्ग अथवा भयानक दुर्भिक्ष होनेपर परीषहोंको सहन करनेमें समर्थ मुनि अल्प भी मरणके कारण उपस्थित होनेपर उत्साहपूर्वक मृत्युका आलिंगन करते हैं ॥२०६६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001987
Book TitleBhagavati Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivarya Acharya
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages1020
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Religion
File Size23 MB
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