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भगवती आराधना कोसलय धम्मसीहो अटुं साधेदि गिद्धपुढेण । णयरम्म य कोल्लगिरे चंदसिरिं विप्पजहिदूण ॥२०६७।। . पाडलिपुत्ते धूदाहेदुं मामयकदम्मि उवसग्गे । साधेदि उसभसेणो अटुं विक्खाणसं किच्चा ।।२०६८।। अहिमारएण णिवदिम्मि मारिदे गहिदसमणलिंगेण । उहाहपसमणत्थं सत्थग्गहणं अकासि गणी ॥२०६९।। सगडालएण वि तथा सत्तग्गहणेण साधिदो अत्थो । वररुइपओगहेदुं रुढे गंदे महापउमे ॥२०७०॥ एवं पण्डियमरणं सवियप्पं वण्णिदं सवित्थारं ।
वुच्छामि बालपंडियमरणं एत्तो समासेण ॥२०७१।। आगेकी गाथाओंसे इसीके समर्थक उदाहरण देते हैं
गा०-अयोध्या नगरीमें धर्मसिंह नामक राजाने अपनी चन्द्रश्रो नामक पत्नीको त्यागकर दीक्षा धारण की। और अपने श्वसुरके भयसे कोल्लगिरि नगरमें हाथीके कलेवरमें प्रवेश करके आराधनाकी साधना की ॥२०६७।।
विशेषार्थ-वृ० क० कोशमें इसकी कथाका नम्बर १५४ है ।
गा०-पाटलीपुत्र नगरमें ऋषभसेन नामक श्रेष्ठीने अपनी पत्नीको त्यागकर दीक्षा ली। अपनी पुत्रोके स्नेहवश श्वसुरके द्वारा उपसर्ग किये जानेपर ऋषभसेनने श्वास रोककर साधना की ॥२०६८॥
विशेषार्थ-इसकी कथाका क्रमांक १५५ है ।
गा०-श्रावस्ती नगरीके राजा जयसेनने वौद्धधर्म त्यागकर जैनधर्म धारण किया था। इससे कुपित होकर अहिमारक नामक बौद्धने उसे उस समय मार डाला जब वह आचार्य यतिवषभको नमस्कार कर रहा था। तव मुनिने अपना अपवाद दूर करनेके लिये शस्त्रसे अपना घात करते हुए साधना की ॥२०६९।।
विशेषार्थ-इसकी कथाका क्रमांक १५६ है ।
गा-पाटलीपुत्रमें नन्दराजाका मंत्री शकटाल था। उसने महापद्म सूरिसे जिन दीक्षा ग्रहण की। उसके विरोधी वररुचिने राजा महापद्मको रुष्ट करके शकटालको मारनेका प्रयत्न किया तो शकटाल मुनिने पञ्च नमस्कार मंत्रका ध्यान करते हुए छुरीसे अपना पेट फाड़ डाला और इस प्रकार आराधनाकी साधना की ।।२०७०।।
विशेषार्थ-इसकी कथाका नम्बर १५७ है।" गा०-इस प्रकार भेद सहित पण्डितमरणका विस्तारसे कथन किया। आगे संक्षेपसे बाल
१. वेघाणसं अ० । णिव्वाणसं आ० ।
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